Wednesday 28 March 2012

२१. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

२१.
"प्रेम-ग्रंथ"

"तेरे नाखून दर्पण थे,तेरे
पग में मेरा मंदिर,
तेरे पायल से झंकृत था
हृदय,उल्लास मुझमें चिर,

तन तेरा जितना सुघड़,
उससे अधिक सुंदर तेरा मन,
शील सुंदर,नीति नैतिक,
अपरिग्रह सम गुप्त तुम धन,

तुम शुष्क धरा पर वर्षा थी,
तुम नील-हृदय का स्पन्दन,
प्रिय!तुम्हें देख चातक हरषे,
करने तेरा कण-अभिनंदन,

मेरा मरुस्थल छूने का,
तुम सागर-लहर प्रयास,प्रिये!
और करने मेरा पाप भस्म,
तुम तीव्र तड़ित-उद्भास,प्रिये!

मैं जलग्रह तेरी परिधि में,
तुम मेरा मात्र आवास,प्रिये!
विस्तार तेरी क्षमता का मैं,
तुम मेरा चिर आकाश,प्रिये!

सतरंगी इंद्रधनुष ओढ़े,अम्बर
निकला नीलाम्बर पर,
सूर्यमुखी!तुम प्रीत-कुसुम
खिलती,प्रफुल्ल पीताम्बर पर,

तुम मेरे जीव की प्रफुल्लता,
तुम मधुर हास-परिहास,प्रिये!
तुम मेरे जीव का रक्त-प्रवाहन,
मेरी श्वाँस-उच्छवास,प्रिये!

तुम प्रत्याशा मेरे काम की,
तुम रति का आभास,प्रिये!
मेरी रिक्ति की तुम्हीं पूर्णता,
मेरा प्रीत-मधुमास,प्रिये!

दमित वासना मेरे हृदय की,
दीप्त प्रज्जवलित हुई,सुधा!
पित्त-कुपित फट पड़ा लुप्त,
जागृत,प्रबलित,रति!मेरी क्षुधा,

व्यर्थ सभी मारण,उच्चाटन,
सम्मोहन और वशीकरण,
प्रिये! तुम्हारे अभिमंत्रित,
नवयौवन का जब आमंत्रण,

तब मन कैसे संयम रखता,
जब सम्मुख पूरी मधुशाला,
और लिए अनगिनत प्याले
नित,आमंत्रित करती सुरबाला,

तो करने लगा राजनट तांडव,
गुरू! हिले धरा-ब्रह्मांड, सुनो!
सब वेद-शास्त्र छूटे कर से,
लघु पंडित मेरा प्रकांड,सुनो!"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

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