Sunday 1 April 2012

२२. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

२२.
"प्रेम-ग्रंथ"

"मैं असमंजस में रहता था कि
मन की बात कहूँ कैसे,
पर किशोर सोचा करता था,
मनु! चुपचाप रहूँ कैसे,

पर डरता था कि कहीं,प्रिया,
सुन,भाव मेरे अन्यथा न ले,
और मेरे कारण जग में,
निष्पाप प्रियतमा,व्यथा न ले,

अंततः उबर कर उहापोह से,
मैंने निश्चय किया यही,कि
कह दूँगा मैं हृदय खो चुका,
माने वह चाहे भले नहीं,

अश्व मेरा उद्यत लगता था,
लक्ष्य मिलन तक उड़ने को,
हृद्कोश मेरे उत्तेजित हो,
आतुर थे,प्रियहृद् जुड़ने को,

तुम पर पाना अधिकार,कामिनी,
अश्वमेघ सम यज्ञ मेरा,
पर परिभाषा,अकथ प्रेम की,
ना समझे सर्वज्ञ मेरा,

प्रिया,धानी चूनर धरती,
कान्त,मैं नील व्योम अभिराम,
कान्त तन रक्त,प्रिया तन शुभ्र,
रंग अतिरंजित,पल अविराम,

कान्त पपीहा तरसे,दे दो,
प्रथम स्वाति की बूँद मुझे,
सौंप कोष यौवन का,दो
निश्चिंत नयन को मूँद,मुझे,

जब खुले तुम्हारे अधर,
प्रिये! मोती सब झाँकें,
हुए धन्य दृग मेरे,
दृष्टि का अवसर पा के,

उन रक्तिम अनार के दानों
को गिन सकता कौन,
हुए होठ जब बंद,रह गया
मेरा काम भी मौन,

यदि जल होता तो छूता तुमको,
गगरी से मैं छलक-छलक कर,
अवलोकन सौंदर्य-तड़ित मैं
करता तन भर ढलक-ढलक कर,

यदि समीर होता,भामा!मैं,
तुमको छूकर बहता मैं,
कर प्रवेश नासिका-छिद्र से
तेरे हृदय में रहता मैं,

यदि ध्वनि होता,प्यार भरा
कुछ तेरे कान में कहता मैं,
और यदि होता रुधिर तेरा
तो कोश-कोश में बहता मैं!"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

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