Tuesday 22 January 2013

२५. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

२५.
"प्रेम-ग्रंथ"

"स्वयमेव समय के मन-मृदंग
से स्वर फूटे झंकार के,
तब संजय! प्रवृत्त तपस्या,
प्रेम ग्रंथ श्रृंगार के,

अचानक, उठा कहीं संगीत,
कौन?फिराता था मायावी छड़ी,
कौंधती चपल प्रियतमा प्रकट,
प्राप्त प्राकृतिक प्रणय की घड़ी,

तो आज अपने ओज से
और रक्त से अभिसार के
सोचता हूँ, गीत मैं
फिर से लिखूँ श्रृंगार के,

कस्तूरी मृग नाभि बसी थी,
रूप-राशि रति क्रन्दन था,
तेर लहराते केश व्याल थे,
देह राशि में चंदन था,

तुम कच्ची मिट्टी मैं कुम्हार,
कृति मिट्टी-चाक नियोग,
इसे कहूँ मैं पूर्व योजना,
विधि की..या संयोग,

पश्चात नवतपा आँधी थी तुम,
वर्षा की रिमझिम फुहार ज्यों,
उद्यत हुआ जटिल मन मेरा,
आँदोलित मनु दसों द्वार ज्यों,

सोच मिलन की मधुर घड़ी
तुम रह-रह कर मुसकाती थी,
मैं चक्रवात तुम वृष्टि सदृश
थी,लहर बड़ी लहराती थी,

ठिठक-ठिठक कर संभल-संभल
कर,मैं समीप तेरे आया,
प्रियतमा मुझे क्या प्राप्त हो गई,
मैं महीप पद भर पाया,

तो बढ़ने लगा तभी सामीप्य,
दूरियाँ सिमट गईं अन्जाने में,
सब खो देने की पीड़ा मैं
था भुला चुका कुछ पाने में,

ज्यों-ज्यों समीप तुम आई
प्रियतमा! किए पूर्ण श्रृंगार,
तुम्हारी ग्रंथि सिमटती गई,
निकलने लगे, बहे रसधार,

वह मन गुलाब,तन था चंदन,
सौंदर्य अधखिले सुमन तेरे,
चरण कमल सम कोमल,बाले!
दो पुष्प प्रफुल्लित नयन तेरे,

मेरी चेष्टा,तेरी लज्जा,
हमारा मिलन स्वर्ग आल्हाद,
सुमन से भ्रमर लिपटता ज्यों,
मदिर पीड़ा,मधुरिम संवाद।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

Saturday 19 January 2013

२४. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

२४.
"प्रेम-ग्रंथ"

"अहा ! चंद्र, तेरी किरणों से
लगे दीप्त आदित्य मेरा,
रचने में संजय-प्रेमग्रंथ अब
लगे लिप्त पाँडित्य मेरा,

ललिता ! तेरे मधुर हास ने
रच डाला लालित्य मेरा,
स्वर्ग-तड़ित उद्दीप्त तेरे
यौवन से रस साहित्य मेरा,

सुमन ! तेरी शीतल किरणों से,
मेरा मन-उपवन उल्लासित,
यत्र-तत्र विचरित हिरणों से,
जड़-बीहड़ जीवन उद्भासित,

भामा ! संजय-प्रेमग्रंथ में,
भरा मान-सम्मान तेरा,
श्यामा ! मूल मेरे द्वापर का
मात्र निरा अभिमान तेरा,

हर युग में तुम मेरी लेखनी,
तुम लेखक इतिहास प्रणेता,
ब्रह्म व्याप्त तुम जड़-चेतन में,
कलियुग-सतयुग-द्वापर-त्रेता,

कर इतना उपकार,प्रियतमा!
मुझे रिक्तियाँ भरने दे,
दे अपना ईंधन मेरे दीप को,
जगती का तम हरने दे,

मेरे बल और तेरी शक्ति से,
चल,मिलकर निर्माण करें,
जहाँ दिखे कोई रंगहीन पट,
नील-हरित जल रंग भरें,

कभी शुक्र की धवल ज्योति
तुम,कभी जीव का मंगल हो,
हे गुरु! बुद्धि प्रदाता नारी,
तुम मेरा जीवन-जल हो,

तुम वर्तमान,तुम भूतकाल,हो
तुम मेरा पल-पल,छिन-छिन,
जीवन नीरस उद्देश्यहीन,
अब हे देवी!तेरे जल बिन,

लता ! वृक्ष का अवलंबन लो,
मुझे प्रबल विश्वास सीख दो,
द्वार खड़ा निष्काम तुम्हारे,
यौवन!मुझको प्रेम भीख दो,

चल आज मिलन स्वीकार करें,
कल क्या होगा? यह कौन कहे,
यह किशोर मन मेरा कहता,
शर रति-पीड़ा,बस मूर्ख सहे,

आओ कुछ और निकट मेरे,
लज्जा का आभूषण पहने,
तुम लौह ढाल बन जाओ,
प्रियतमा,तीव्र वेग मेरा सहने।।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा