३२.
" प्रेम-ग्रंथ"
" निस्संदेह यह पूर्व नियत है,
किसे कौन कब भा जाए,
जाने कब घनमेघ कृष्ण
उद्दाम, गगन पर छा जाए,
जाने किस बंजर धरती को
सराबोर वर्षा कर दे,
जाने कब सूने चित्रों में
रंग नीला-लाल कोई भर दे,
मेरी दृष्टि में प्रीत-प्रेम
उद्भव, प्राकृतिक क्रिया है,
तभी मधुप ने पुष्पों का
आत्मिक श्रृंगार किया है,
कहे नायिका, 'हे नायक!
तुम मसि,मैं कोरा पृष्ठ,सुनो!,
मुझ पर लिख दो श्रृंगार गीत,
लज्जा तज,होकर धृष्ट,सुनो!',
और कान्त ने भी शीला को
उच्च स्थान दिया है,
उसे हृदय में रचा-बसा कर,
चिर अभिमान दिया है,
नर- नारी के मिलन मात्र ने
रचा जीव संसार,
जड़ व्यतिकृत हो चेतन में बदले,
बहे प्रेम रसधार,
नहीं काम-संतुष्टि मात्र
नर- नारी का सहकार,
जीवन परमोद्देश्य प्रकृति का,
प्रेम अमूल्य उपहार,
विपरीत लिंग आकर्षण का
जग सुनियोजित ताना-बाना,
जीवन- मृत्यु सरल चक्र सम,
प्रेम- स्नेह खोना-पाना,
रखना ध्यान सदैव,त्याग है,
सफल प्रेम की परिभाषा,
उत्कट अभिलाषा कुछ खोने की,
कुछ पाने की प्रत्याशा,
और कदापि नहीं वासना का
अंतस में समावेश हो,
प्रीत- प्रेम व्यापार सिद्ध,यदि
अंतस जैसा तेरा भेष हो,
यह जगती एक बगिया जिसमें
भाँति- भाँति के फूल खिले,
कहीं मिलन-मधुमास मोक्ष तो
कहीं मार्ग भर शूल मिले,
सार्थक- सम्यक प्रेमग्रंथ लिखता
संजय इस उहापोह में,
कि कितना सुख है प्रेम प्राप्ति में,
कितना दुख प्रियतम बिछोह में।।"
( लगातार)
संजय कुमार शर्मा
" प्रेम-ग्रंथ"
" निस्संदेह यह पूर्व नियत है,
किसे कौन कब भा जाए,
जाने कब घनमेघ कृष्ण
उद्दाम, गगन पर छा जाए,
जाने किस बंजर धरती को
सराबोर वर्षा कर दे,
जाने कब सूने चित्रों में
रंग नीला-लाल कोई भर दे,
मेरी दृष्टि में प्रीत-प्रेम
उद्भव, प्राकृतिक क्रिया है,
तभी मधुप ने पुष्पों का
आत्मिक श्रृंगार किया है,
कहे नायिका, 'हे नायक!
तुम मसि,मैं कोरा पृष्ठ,सुनो!,
मुझ पर लिख दो श्रृंगार गीत,
लज्जा तज,होकर धृष्ट,सुनो!',
और कान्त ने भी शीला को
उच्च स्थान दिया है,
उसे हृदय में रचा-बसा कर,
चिर अभिमान दिया है,
नर- नारी के मिलन मात्र ने
रचा जीव संसार,
जड़ व्यतिकृत हो चेतन में बदले,
बहे प्रेम रसधार,
नहीं काम-संतुष्टि मात्र
नर- नारी का सहकार,
जीवन परमोद्देश्य प्रकृति का,
प्रेम अमूल्य उपहार,
विपरीत लिंग आकर्षण का
जग सुनियोजित ताना-बाना,
जीवन- मृत्यु सरल चक्र सम,
प्रेम- स्नेह खोना-पाना,
रखना ध्यान सदैव,त्याग है,
सफल प्रेम की परिभाषा,
उत्कट अभिलाषा कुछ खोने की,
कुछ पाने की प्रत्याशा,
और कदापि नहीं वासना का
अंतस में समावेश हो,
प्रीत- प्रेम व्यापार सिद्ध,यदि
अंतस जैसा तेरा भेष हो,
यह जगती एक बगिया जिसमें
भाँति- भाँति के फूल खिले,
कहीं मिलन-मधुमास मोक्ष तो
कहीं मार्ग भर शूल मिले,
सार्थक- सम्यक प्रेमग्रंथ लिखता
संजय इस उहापोह में,
कि कितना सुख है प्रेम प्राप्ति में,
कितना दुख प्रियतम बिछोह में।।"
( लगातार)
संजय कुमार शर्मा