Tuesday 5 February 2013

२६. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

२६.
"प्रेम-ग्रंथ" 

"तुम वर्षा प्रत्याशा आषाढ़,
आँधी,
झक्खड़,बूँदा-बाँदी,
फिर
रटाझोर जल-जल,धरती
को
कर देती सोना-चाँदी,

आषाढ़ी
घनमेघ प्रकम्पन,
वर्षा-
ऋतु की हरीतिमा तुम,
हतप्रभ
मेरा मनु अकिंचन,
रक्त
भानु की अरूणिमा तुम,

सौंधी
सुगंध दो जली मृदा को,
तृप्त
करो रसधार, प्रिए!
तेरा
जल मेरा जीवन,
सधवा
सम सद्श्रृंगार,प्रिए!

तेरी
हलचल से क्षुधा तृप्त,
प्रेरित
करती कृषिकार्य मेरा,
साक्षात
प्रकृति की प्रतिकृति तुम,
प्रिय
सदादेश स्वीकार्य तेरा,

घन
काले बादल केश तेरे,
लट,
नागप्रिया! विष प्रखर तेरा,
समरजीत-
सद्प्रीत-श्वेत,
सौंदर्य,
प्रियतमा! अमर तेरा,

सुन!
मेरा प्रेम है वीरोचित,
मैं
ससम्मान प्रतिफल माँगूँ,
है
क्षुधा मेरी स्वर्गामृत की,
इसलिए
तुम्हारा जल माँगूँ,

क्षण-
भर चपला तुम मेरी क्षपा
को
आँदोलित करने आई,
या
पूर्वजन्म ऋण शेष चुकाने,
मेरी
रिक्ति भरने आई,

तुम
कभी नीलिमा मेरे गगन की,
कभी
भोर पूरब लाली,
तुम
शुभ्र-शान्त-स्निग्ध चन्द्रमा,
शुक्राभा
पश्चिम वाली,

तुम
जलधि धीर,तुम धरा क्षीर,
तुम
जलप्रवाह,सरिता कल-कल,
तुम
हृदय रुधिर,तुम शील नीर,
तुम
नवझरना सम उत्श्रृंखल,

देह-
काँति तेरी शशि शीतल,
सानिध्य
प्रीत,रति!तप्त तेरा,
तेरी
चाकरी करने आतुर,
चकित
काम अभिशप्त मेरा,

जा!भामा,सन्निकट तनिक,
अब
लाज वाष्प बन उड़ने दे,
रचने
दे जा घनमेघ उन्हें,
कण-
कण माया! अब जुड़ने दे,

कैसे?
कब तक,आग्रह टालूँ,
तो
लो! प्रियतम, गई सामने,
!
मेरी शक्ति सम्मुख नतमस्तक,
तेरा
बिखरता नीड़ थामने।।"

(
लगातार)

संजय
कुमार शर्मा

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