Tuesday 5 February 2013


२८.
"
प्रेम-ग्रंथ"

"
तुम मेरे माथे की बिंदिया,
तुम
मेरे हाथ का कंगन हो,
तुम
ही हो संसार, कान्त!
तुम
मेरे हृदय की धड़कन हो,

तुम्हारा
अनल सदृश स्पर्श,
उष्ण
दहके दावानल,श्वाँस,
पूरक
तुम मेरी रिक्ति के नियत,
तेरा
आगमन,मेरा मधुमास,

अहा!
तेरा सौंदर्य देव सम,
स्वर्गिक
मृदु स्पर्श तेरा,
माया
तुमसे सहवास कान्त,
तब
व्यर्थ लगे संघर्ष मेरा,

तेरा
मदमाता भवन प्रवेश,प्रिए,
मैं
मृदुल छटा,तुम अश्व बली,
खुलते
सब लगे कपाट मेरे,
मैं
धैर्य धीर,तुम श्याम छली,

सागर
सम गहरी आँखें,
दैदीप्य-
दीप्त,वीरोचित मुख,
लौह
तेरी बाँहों का आश्रय,
कान्ता
का ईहलौकिक सुख,

कमर
शंकु,छाती पर्वत,
जाँघें
प्रबलित, द्रुमअंश,
लता
लिपट चाहे तुमसे
अवलंबन,
उन्नत वंश,

चाल
तुम्हारी सिंह जैसी,
सम
हिरण तुम्हारा रूप,
तेरी
दृष्टि मधुरस वर्षा,
ऋतुशीत
खिले ज्यों धूप,

तलवार
धार सम भाव तेरे,
अति
मधुरिम दीर्घ कटाक्ष,
रति
मेरी आतुर, प्रियतम!
कब?
होंगे काम समाक्ष,

भौंहें
कटार,उन्नत ललाट,
सुतवा
ग्रीवा,नासिका पुष्ट,
सुगठित
अंग-प्रत्यंग,कान्त!
स्पर्श
पूर्ति,नायिका तुष्ट,

हे
काँत! कामिनी मैं कोमल,
है
मेरा निवेदन सुनो! तनिक,
मैं
मीत मदिर-मद-मृदुल-मधुर,
संग
मेरे नीड़,तुम बुनो तनिक,

सर्वप्रथम
जब दृष्टि पड़ी थी
तुम
पर मेरी,कान्त मेरे!
उसी
समय से आँदोलित
जाने
क्यों हैं,सब प्रान्त मेरे,

तुम
मानिन्द लहर,प्रियतम!
आओ
छू लो सब द्वीप मेरे,
दे
दो कुछ मोती अमूल्य,
अब
आशान्वित सद्सीप मेरे।।"

(
लगातार)

संजय
कुमार शर्मा

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