Tuesday 5 February 2013

३०. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण



३०.
"
प्रेम-ग्रंथ"

"
मेरे एकाकी तन-मन में,
कैशोर्य
वृत्ति जब प्रकट हुई,
तब
चित् वि्भ्रान्त-अशान्त हुआ,
मस्तिष्क-
देह गति विकट हुई,

यह
कैसा अनुबंध,कामिनी
का
तुमसे है,कांत! बता,
स्वर्गारोहण
को उद्यत लगती
ज्यों
मनु द्रुम से लिपट लता,

यह
कैसी ज्वाला भड़की,
अब
लगे दहकते प्रान्त मेरे,
आंदोलित-
उद्वेलित रति,
सद्सागर
कामाक्राँत मेरे,

अंग-
अंग प्रत्यंग भंग
कौमार्य,
चीर फट गए लगे,
मायावी
अनुहार मात्र से
अधर-
होठ सट गए लगे,

तब
तजने को मोती अमूल्य,
सहसा
मन सीप फटा मेरा,
ज्यों
शुष्क मरुस्थल पर वर्षा,
गुरु
चिर बैराग कटा मेरा,

मैं
कागज की नाव,वीर!
तुम
भँवर काल पतवार मेरे,
तब
कैसा श्रृंगार? प्राण!
तुम
ही सोलह श्रृंगार मेरे,

तन
आंदोलित,मन उद्वेलित,
जग
मुझे देख कर चिंतित है,
शील-
शालिनी प्रेमसिक्त
क्यों
हुई,देख,यह विस्मित है,

मैं
रंक दीन-दुखियारी,
प्रियतम,
कान्त मेरा सम्राट,
मैं
गुण-प्रीत बखान कर
रही
लगती चारण-भाट,

मैं
प्रेमग्रंथ की पद्य-पंक्ति,
आओ!.......
पढ़ लो,
मैं
अनगढ़ मृदा,कुम्हार
मेरे!
मुझको गढ़ लो,

रौंदो-
कुचलो,कूटो-पीसो,
दो
सुंदर सा आकार मुझे,
हम
जीवनरथ के दो पहिए,
दो
स्वप्न एक साकार मुझे,

मैं
कविता तेरी तुकान्त,
कान्त!
गा लो मुझको,
मैं
अमूल्य-अप्राप्य
वेद,....
पा लो मुझको,

कभी
गद्य मैं,कभी पद्य मैं,
प्रेमल
काव्य प्रबंध,
नित
मेरे रुप पर लिखता
संजय,
प्रेमग्रंथ निर्बन्ध।।"

(
लगातार)

संजय
कुमार शर्मा

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