Tuesday 5 February 2013

३२. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


३२.
"
प्रेम-ग्रंथ"

"
निस्संदेह यह पूर्व नियत है,
किसे
कौन कब भा जाए,
जाने
कब घनमेघ कृष्ण
उद्दाम,
गगन पर छा जाए,

जाने
किस बंजर धरती को
सराबोर
वर्षा कर दे,
जाने
कब सूने चित्रों में
रंग
नीला-लाल कोई भर दे,

मेरी
दृष्टि में प्रीत-प्रेम
उद्भव,
प्राकृतिक क्रिया है,
तभी
मधुप ने पुष्पों का
आत्मिक
श्रृंगार किया है,

कहे
नायिका, 'हे नायक!
तुम
मसि,मैं कोरा पृष्ठ,सुनो!,
मुझ
पर लिख दो श्रृंगार गीत,
लज्जा
तज,होकर धृष्ट,सुनो!',

और
कान्त ने भी शीला को
उच्च
स्थान दिया है,
उसे
हृदय में रचा-बसा कर,
चिर
अभिमान दिया है,

नर-
नारी के मिलन मात्र ने
रचा
जीव संसार,
जड़
व्यतिकृत हो चेतन में बदले,
बहे
प्रेम रसधार,

नहीं
काम-संतुष्टि मात्र
नर-
नारी का सहकार,
जीवन
परमोद्देश्य प्रकृति का,
प्रेम
अमूल्य उपहार,

विपरीत
लिंग आकर्षण का
जग
सुनियोजित ताना-बाना,
जीवन-
मृत्यु सरल चक्र सम,
प्रेम-
स्नेह खोना-पाना,

रखना
ध्यान सदैव,त्याग है,
सफल
प्रेम की परिभाषा,
उत्कट
अभिलाषा कुछ खोने की,
कुछ
पाने की प्रत्याशा,

और
कदापि नहीं वासना का
अंतस
में समावेश हो,
प्रीत-
प्रेम व्यापार सिद्ध,यदि
अंतस
जैसा तेरा भेष हो,

यह
जगती एक बगिया जिसमें
भाँति-
भाँति के फूल खिले,
कहीं
मिलन-मधुमास मोक्ष तो
कहीं
मार्ग भर शूल मिले,

सार्थक-
सम्यक प्रेमग्रंथ लिखता
संजय
इस उहापोह में,
कि
कितना सुख है प्रेम प्राप्ति में,
कितना
दुख प्रियतम बिछोह में।।"

(
लगातार)

संजय
कुमार शर्मा

३१. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


३१.
"
प्रेम-ग्रंथ"

"
जब रोम-रोम मेरे,किशोर
पुलकित
होता,
जब
श्वाँस-श्वाँस तन ताप
उग्र
किंचित होता,

तब
शुष्क धरा पर यह
कैसा
मृदु ओस दिखा,
वह
प्रेम बीज बोता
उस
पर संतोष दिखा,

वह
महा शक्ति मेरे
शिव
में संलयित हुई,
तब
महाकाल में ज्योति
किरण
प्रज्जवलित हुई,

वह
कौन? पीसता मेरी
शिलाएँ,
चूर्ण करे,
वह
उर्ध्व चिन्ह,क्षैतिज-
रेखा
को पूर्ण करे,

ऋण
चिन्ह हुआ धन चिन्ह,
जागता
काम लगे,
यह
प्रेम-ग्रंथ संजय का
चिर
संग्राम लगे,

हरती
पीड़ा हर महादेव की,
शक्ति
पुंज वह,
धन-
धान्य,स्वर्ग वैभव देती
एक
देव कुंज वह

यह
पंचभूत और विकट शून्य
मिलकर
मनु जीव बनाते हैं,
रज-
वीर्य,अंड और शुक्र,संत!
जप-
ध्यान-जोग दर्शाते हैं,

तुम
आदिशक्ति मैं आदि देव,
तुम
आदि भूत मैं अंतहीन,
मैं
क्रियाहीन तुम ध्यानमग्न,
तुम
रजस्वला,मैं दैव दीन,

तुम
खंड-खंड में व्याप्त मेरे,
मैं
तेरे खंड से चिर प्रचंड,
तुम
अंड-अंड,मैं शुक्र-शुक्र,
शिवशक्ति
मिलन जीवन अखंड,

तब
कौन मूर्ख कहता है,
मेरे
प्रेमग्रंथ को काम ग्रंथ,
संजय
धृतराष्ट्र नहीं केशव,
तब
तो रचता निर्वाण पंथ,

क्या
धरती पर हल चला रहा,
वह
कृषक लगे रत योग नहीं,
लिखता
है संजय प्रेमग्रंथ में
प्रीत,
मात्र समभोग नहीं,

यह
प्रेमग्रंथ रसधार,मित्र! तुम
सुधा
बूँद, चख लो, पी लो,
यह
आदि-अंत का आदिग्रंथ और
अंतवेद,
लख लो, जी लो।।"

(
लगातार)

संजय
कुमार शर्मा

३०. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण



३०.
"
प्रेम-ग्रंथ"

"
मेरे एकाकी तन-मन में,
कैशोर्य
वृत्ति जब प्रकट हुई,
तब
चित् वि्भ्रान्त-अशान्त हुआ,
मस्तिष्क-
देह गति विकट हुई,

यह
कैसा अनुबंध,कामिनी
का
तुमसे है,कांत! बता,
स्वर्गारोहण
को उद्यत लगती
ज्यों
मनु द्रुम से लिपट लता,

यह
कैसी ज्वाला भड़की,
अब
लगे दहकते प्रान्त मेरे,
आंदोलित-
उद्वेलित रति,
सद्सागर
कामाक्राँत मेरे,

अंग-
अंग प्रत्यंग भंग
कौमार्य,
चीर फट गए लगे,
मायावी
अनुहार मात्र से
अधर-
होठ सट गए लगे,

तब
तजने को मोती अमूल्य,
सहसा
मन सीप फटा मेरा,
ज्यों
शुष्क मरुस्थल पर वर्षा,
गुरु
चिर बैराग कटा मेरा,

मैं
कागज की नाव,वीर!
तुम
भँवर काल पतवार मेरे,
तब
कैसा श्रृंगार? प्राण!
तुम
ही सोलह श्रृंगार मेरे,

तन
आंदोलित,मन उद्वेलित,
जग
मुझे देख कर चिंतित है,
शील-
शालिनी प्रेमसिक्त
क्यों
हुई,देख,यह विस्मित है,

मैं
रंक दीन-दुखियारी,
प्रियतम,
कान्त मेरा सम्राट,
मैं
गुण-प्रीत बखान कर
रही
लगती चारण-भाट,

मैं
प्रेमग्रंथ की पद्य-पंक्ति,
आओ!.......
पढ़ लो,
मैं
अनगढ़ मृदा,कुम्हार
मेरे!
मुझको गढ़ लो,

रौंदो-
कुचलो,कूटो-पीसो,
दो
सुंदर सा आकार मुझे,
हम
जीवनरथ के दो पहिए,
दो
स्वप्न एक साकार मुझे,

मैं
कविता तेरी तुकान्त,
कान्त!
गा लो मुझको,
मैं
अमूल्य-अप्राप्य
वेद,....
पा लो मुझको,

कभी
गद्य मैं,कभी पद्य मैं,
प्रेमल
काव्य प्रबंध,
नित
मेरे रुप पर लिखता
संजय,
प्रेमग्रंथ निर्बन्ध।।"

(
लगातार)

संजय
कुमार शर्मा