Wednesday 11 April 2012

२३. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

२३.
"प्रेम-ग्रंथ"

"न जाने क्या बिना कहे तुम
मेरे जीव से क्या कहती,
मेरी सीमाएँ गुरूकटाक्ष,ऐ
बाले! सुन कब तक सहती,

इठला-इठला कर चलती थी,
तुम पतंग जीवन समुद्र पर,
ज्यों करती थी कोई कृपा,तुम
आदिशक्ति उस महारुद्र पर,

गगन तुम्हारे वस्त्र नील,
तारे उन पर जगमग दर्पण,
हे अखन्ड उर्जा! तुम पर
जल-थल-नभ सब मेरा अर्पण,

स्पर्श तुम्हारा काम-कुटिल था,
चंद्रबदन तुम निशा किरण,
हिरणी थी या मेरा विभ्रम,
असमंजस में था मेरा हिरण,

तुम गौरवर्ण,दामिनी दमक,
तुम मेघसुमन,वर्षा रिम-झिम,
तुम मेरे दिवस का दीप्त भानु,
तुम तमसकाल,दीपक टिम-टिम,

तेरा यौवन मदभार झुका था,
खिले कुसुम की अंगड़ाई सी,
पलक झुके फिर दृष्टि उठी थी,
चंद्रकिरण ज्यों अलसाई सी,

नयनों का सौंदर्य नीलिमा,
घने पलक के बाल!
पलकों का गिरना फिर खुलना
बुनता कोई जाल!

नयनों में काजल की रेखा,
शुभ्र मेघ पर तड़ित समान,
खुले चक्षु फिर पलक गिरे,
शरवर्षा थी,भौंहें कमान,

उत्तर से निकले इन्द्रधनुष
का सतरंगा विस्तार,
तेरे तनिक स्पर्श मात्र से
जगा हृदय में प्यार,

सावनी सुगंध समीर चले
और लता लद गई फूलों से,
हृदय कसकने लगा,मेरा
द्रुम आच्छादित था झूलों से,

मेरी प्रतीक्षा तेरा आगमन,
मन-मृदंग पर थाप,प्रिए!
न जाने किस लक्ष्यदिशा
में रक्त दौड़ता आप,प्रिए!

तुम बिन लगता था मुझको
वह यौवन कारावास,
स्वीकारोक्ति तेरी,प्रियतमा!
पतझड़ में मधुमास।।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

Sunday 1 April 2012

२२. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

२२.
"प्रेम-ग्रंथ"

"मैं असमंजस में रहता था कि
मन की बात कहूँ कैसे,
पर किशोर सोचा करता था,
मनु! चुपचाप रहूँ कैसे,

पर डरता था कि कहीं,प्रिया,
सुन,भाव मेरे अन्यथा न ले,
और मेरे कारण जग में,
निष्पाप प्रियतमा,व्यथा न ले,

अंततः उबर कर उहापोह से,
मैंने निश्चय किया यही,कि
कह दूँगा मैं हृदय खो चुका,
माने वह चाहे भले नहीं,

अश्व मेरा उद्यत लगता था,
लक्ष्य मिलन तक उड़ने को,
हृद्कोश मेरे उत्तेजित हो,
आतुर थे,प्रियहृद् जुड़ने को,

तुम पर पाना अधिकार,कामिनी,
अश्वमेघ सम यज्ञ मेरा,
पर परिभाषा,अकथ प्रेम की,
ना समझे सर्वज्ञ मेरा,

प्रिया,धानी चूनर धरती,
कान्त,मैं नील व्योम अभिराम,
कान्त तन रक्त,प्रिया तन शुभ्र,
रंग अतिरंजित,पल अविराम,

कान्त पपीहा तरसे,दे दो,
प्रथम स्वाति की बूँद मुझे,
सौंप कोष यौवन का,दो
निश्चिंत नयन को मूँद,मुझे,

जब खुले तुम्हारे अधर,
प्रिये! मोती सब झाँकें,
हुए धन्य दृग मेरे,
दृष्टि का अवसर पा के,

उन रक्तिम अनार के दानों
को गिन सकता कौन,
हुए होठ जब बंद,रह गया
मेरा काम भी मौन,

यदि जल होता तो छूता तुमको,
गगरी से मैं छलक-छलक कर,
अवलोकन सौंदर्य-तड़ित मैं
करता तन भर ढलक-ढलक कर,

यदि समीर होता,भामा!मैं,
तुमको छूकर बहता मैं,
कर प्रवेश नासिका-छिद्र से
तेरे हृदय में रहता मैं,

यदि ध्वनि होता,प्यार भरा
कुछ तेरे कान में कहता मैं,
और यदि होता रुधिर तेरा
तो कोश-कोश में बहता मैं!"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा