Wednesday 28 March 2012

२१. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

२१.
"प्रेम-ग्रंथ"

"तेरे नाखून दर्पण थे,तेरे
पग में मेरा मंदिर,
तेरे पायल से झंकृत था
हृदय,उल्लास मुझमें चिर,

तन तेरा जितना सुघड़,
उससे अधिक सुंदर तेरा मन,
शील सुंदर,नीति नैतिक,
अपरिग्रह सम गुप्त तुम धन,

तुम शुष्क धरा पर वर्षा थी,
तुम नील-हृदय का स्पन्दन,
प्रिय!तुम्हें देख चातक हरषे,
करने तेरा कण-अभिनंदन,

मेरा मरुस्थल छूने का,
तुम सागर-लहर प्रयास,प्रिये!
और करने मेरा पाप भस्म,
तुम तीव्र तड़ित-उद्भास,प्रिये!

मैं जलग्रह तेरी परिधि में,
तुम मेरा मात्र आवास,प्रिये!
विस्तार तेरी क्षमता का मैं,
तुम मेरा चिर आकाश,प्रिये!

सतरंगी इंद्रधनुष ओढ़े,अम्बर
निकला नीलाम्बर पर,
सूर्यमुखी!तुम प्रीत-कुसुम
खिलती,प्रफुल्ल पीताम्बर पर,

तुम मेरे जीव की प्रफुल्लता,
तुम मधुर हास-परिहास,प्रिये!
तुम मेरे जीव का रक्त-प्रवाहन,
मेरी श्वाँस-उच्छवास,प्रिये!

तुम प्रत्याशा मेरे काम की,
तुम रति का आभास,प्रिये!
मेरी रिक्ति की तुम्हीं पूर्णता,
मेरा प्रीत-मधुमास,प्रिये!

दमित वासना मेरे हृदय की,
दीप्त प्रज्जवलित हुई,सुधा!
पित्त-कुपित फट पड़ा लुप्त,
जागृत,प्रबलित,रति!मेरी क्षुधा,

व्यर्थ सभी मारण,उच्चाटन,
सम्मोहन और वशीकरण,
प्रिये! तुम्हारे अभिमंत्रित,
नवयौवन का जब आमंत्रण,

तब मन कैसे संयम रखता,
जब सम्मुख पूरी मधुशाला,
और लिए अनगिनत प्याले
नित,आमंत्रित करती सुरबाला,

तो करने लगा राजनट तांडव,
गुरू! हिले धरा-ब्रह्मांड, सुनो!
सब वेद-शास्त्र छूटे कर से,
लघु पंडित मेरा प्रकांड,सुनो!"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

Monday 26 March 2012

२०. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

२०.
"प्रेम-ग्रंथ"

"वह तड़ाग का दृश्य,भला!
मैं कैसे भूलूँ हृदयाँकित,
रति-छाया से सुप्त काम जब
जगा, कोष पा मनवाँछित,

मीन तेरा वह जलप्रवेश,सम
सर्प तैरना और नहाना,
लट नागिन चिपकी मुखड़े पर,
देह पोंछना और हटाना,

खग सम तुम अज्ञानी क्या
जानो,देखे छिप कर कौन,
आड़ छिपे,वट-वृक्ष निहारूँ
तुझे,भामिनी! मौन,

आहट सुन कुछ तेरा चौंकना,
कौन छिपा है तनिक सोचना,
फिर असफल निश्चिन्त भाव
से दीप्त दामिनी देह पोंछना,

गगरी जल में डुबा उसे भर,
घुटने से सिर पर रखना,
कौन मूढ़ जो नहीं चाहता
स्वर्ग नयन सुख मधु चखना,

चली,धसकने लगी धरा,
हिलते पर्वत उन्मुक्त-मुक्त,
एक गगरी सिर पर,पीछे
द्वय,रुधिर-माँस से युक्त,

बल खाती नागिन सा चलना,
वह हिरनी सी चाल,
कृष्ण केश वह क्षीर-पीठ पर,
ज्यों घाटी पर व्याल,

गगरी में जल भर कर लाना,
गोरी तेरा पनघट से,
मधुर सोहती तान तुम्हीं से
है गोपी! वंशीवट से,

कसी कंचुकी भीग हुई कुछ
और निकट,भीगे तन से,
वाष्प निकलने लगा,धधकते
कामुक रति नवयौवन से,

गगरी से छलका जल तेरे
मुखड़े का चुम्बन करता,
और मोती सा ढलक,चंद्र
के यौवन में यौवन भरता,

अहा! अधर पर टिकी बूँद
ज्यों थी गुलाब पर ओस,
अरे! होठ से ढलको मत,
हे! प्रियतम के संतोष,

ज्यों गुलाब के दल पर
जमती,शीत ओस की बूँद,
प्रेमलीन सच्चिदानंद,
इहलौकिक आँखेँ मूँद।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

Saturday 24 March 2012

१९. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

१९.
"प्रेम-ग्रंथ"

"आगत समय का स्वप्न क्या,
और भाग्य क्या,प्रारब्ध क्या,
एक द्यूत-क्रीड़ा प्रेम, संजय!
प्राप्य क्या और लब्ध क्या,

कर्म की, संजय! कलम यदि,
वाक्य क्या और शब्द क्या,
लिख,प्रखर दिनकर की कहानी,
प्रिय निशा निस्तब्ध क्या,

तो प्रेम करना,स्वप्न से भी,
कर्म है,संजय! मेरा,और
स्वप्न को साकार करना,
भाग्य पर सुविजय मेरा,

सैकड़ों रविकर का तुझमें
ओज है वीराँगना,
मद-मधुर माधुर्यों में डूबी
प्रसादों की व्यंजना,

तू मेरी अमिधा कलम,
हर पृष्ठ पर दृष्टव्य है,
तू मेरी अभिलक्षणा,
संजय का तू वक्तव्य है,

प्रेम करना इस जगत में,
क्या नहीं संग्राम है,
प्रेम मर्यादा पुरुष है
तो कभी घनश्याम है,

'प्रेम कर ले',पुस्तकों में,
धर्मग्रंथों में पढ़ा था,
पर प्रेम में मेरे,जगत का
आवरण किंचित मढ़ा था,

यह जगत सतयुग कभी,
त्रेता कभी, द्वापर कभी,
और भाग्य के हाथों के
कठपुतले,मनुज नश्वर सभी,

तो भाग्य से डरकर,मेरा
घनश्याम बैठा क्यों रहे,
सीता-विरह में राम कुंठित
विरह-विष क्यों कर सहे,

तो शिव मेरा संग्रामरत,
है नष्ट करता काम को,
और कभी दृष्टव्य,तकता
पार्वती अभिराम को,

तो ऋण मेरा,मैं शेष कोई
क्यों रखूँ, इस जगत में,
और रुद्र विष,अमृत सरीखे
नित चखूँ, इस जगत में,

इसलिए है वेद पंचम,
प्रेम का यह ग्रंथ मेरा,
और कबीरों सम सधुक्कड़
संजयी है, पंथ मेरा।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा




Friday 23 March 2012

१८. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

१८.
"प्रेम-ग्रंथ"


"स्मरण चैत्र-प्रतिपदा मुझे,
व्रत रखती थी तुम,प्रिये!सदा,
मेरा प्रेमजल,शिवलिंग अर्पण
करती थी तुम,प्रियम्वदा!

पर भविष्य का लेखा-जोखा
सदा हमें अज्ञात रहे,
आज हृदय क्यों धड़क रहा है,
मात्र यही अभिज्ञात रहे,

अवतरित हुए,हम प्रेमग्रंथ
एक प्रीतकाव्य निष्पादित करने,
इस धरती पर जीव रूप धर,
प्रेमकाज संपादित करने,

पर अवलंबन उद्देश्य तेरा,
पर आलंबन मेरा जीवन,
तुम पराश्रयी,परजीवी सम,
आश्रयदाता,मेरा तन-मन,

मैं वृक्ष अडिग,आँधी विशाल!
तुम लता झुकी और छूट गई,
उन्मुक्त समीरण,जल-हिल्लोर,
द्रुमहठ,अभिलाषा टूट गई,

मेरा सर्वस्व समर्पित तेरे
मधुर हास को, ऐ! सबला,
मेरी दृष्टि में वही मूर्ख,
कहता है जो, नारी अबला,

पर मुझे पराश्रित लगता था
वह छली काम उद्दाम मेरा,
त्रेता-द्वापर के मकड़-जाल में
बली राम-घनश्याम मेरा,

आकर मुझमें,तुम रचो-बसो,
मकड़े सम मैं जाला बुनता,
अमृत-मंथन के सुधा-गरल
तज मैं स्वर्गिक हाला चुनता,

कुछ मैं कहता,कुछ तुम कहती,
कुछ तुम सुनती,कुछ मैं सुनता,
कुछ मैं गाता,कुछ तुम गाती,
कुछ तुम गुनती,कुछ मैं गुनता,

जुड़ गए हमारे संवेदन,
जब तुम रोती,तब मैं रोता,
विरह अकल्पित,हम दोनों
के लिए धैर्य,धड़कन खोता,

अवशेष मात्र अब स्मृतियाँ,
वह मधुर वाद-संवाद,प्रिये!
तेरे प्रतिवादों का प्रत्युत्तर,
प्रेमग्रंथ अनुवाद,प्रिये!

अब लेकर संजय-प्रेम-रूधिर,
संदीप! अनवरत जलता जा,
तू पढ़ता संजय-प्रेमग्रंथ,
ऐ!हृदय,अनवरत चलता जा।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

Thursday 22 March 2012

१७. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

१७.
"प्रेम-ग्रंथ"

"तुम गंगा की पावन धारा,
तुम ओज! नदी चंबल का जल,
तुम कावेरी का मधुर गीत,
गोमती सुधा तुम उत्श्रृंखल,

तुम यमुना की तान सुरीली,
शताब्दियों की गाथा थी,
तुम प्राणदायिनी सिन्धु नदी,
प्रियतम का उन्नत माथा थी,

सतलुज,चिनाब,रावी,झेलम
और व्यास चंचला प्यार,प्रिये!
जीवन जल देते सदा प्रवाहित
तप ताप्ती की धार,प्रिये!

तुम कामदेव का अस्त्र,
हिमालय की विस्तृत माया घाटी,
रति का सोलह श्रृंगार तुम्हीं,
तुम हिन्द देश,पावन-माटी,

तुम उत्तर का समतल पठार,
तुम मध्यदेश मैकल-माला,
तुम बंग भूमि का साँध्य-गीत,
तुम महुए की पहली हाला,

तुम जलधर की थी रजत लहर,
तुम ब्रह्मपुत्र हुंकार,प्रिये!
तुम स्वर्ण धातु सम सोन,सरित्!
तुम महानदी विस्तार प्रिये!

पर्वत माला प्राकृतिक दृश्य,
सुंदरता का अभिसार,प्रिये!
सुनता था जग में प्रेम!भँवर,
तुम थीं वैतरणी पार,प्रिये!

अश्व-शक्ति तुम मेरी प्रिये,
तुम अर्ध अंग स्वामिनी मेरी,
प्रियतम हृद्उपवन अवस्थिता,
तुम वाम अंग दामिनी मेरी,

कोयल,कोयल से ही बोले
तो हम हंसों का क्या होगा,
यदि मीरा सम प्रेम ना मिले,
यदुवंशों का क्या होगा,

मदिर-मदिर मेरे कानों में
कौन बोलता,भंग,प्रिये!
और मेरे सूने आँगन में
कौन घोलता रंग,प्रिये!

क्षमता तेरी कभी नष्ट
न हो मेरी पाती,पढ़ते,
अभी मत ठहर मेरी,प्रियतमा!
लक्ष्य दिशा,आगे बढ़ते,

मैं क्या जानूँ,रति क्रीड़ा क्या?
मैं भोला था,सज्ञान नहीं था,
मैं क्या जानूँ,रति पीड़ा क्या?
क्या यह मेरा अज्ञान नहीं था।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

Sunday 18 March 2012

१६. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


१६.
"प्रेम-ग्रंथ"


"प्रियतमा शुक्र,बादलों मध्य,
अहा! वह शुभ्र श्वेत सौंदर्य,
देख हुई मेरी दृष्टि,अनिमेष,
अप्सरा अपरिमेय आश्चर्य,


उष्ण श्वाँस से माथे पर की 
लट,ज्वाला से दहक रही थी,
देहगंध,नैसर्गिक चंदन
के सुगंध से महक रही थी,


मधुकण,तेरे अधरों से थे
टपक रहे,चातक प्यासा,
स्वाति! तेरी अमृत बूँदों से
मिले तृप्ति,यह अभिलाषा,


वह कटि पर का परवलय,
प्रिये! आसन्न कोण आधार,
रतिबिंदु,सुमन प्रतिबिम्ब,
प्रियतमा! स्वर्गों का अभिसार,


चंद्र की शीतल किरण,मेघों 
से गिरती ओस तुम हो,
तुम क्षुधा,लिप्सा,पिपासा,
वासना,अनुतोष तुम हो,


क्यों मुझे अपलक निहारा?
प्राप्य लगते लब्ध मेरे,
पुनः सक्रिय हो चले सब
कोशिका निस्तब्ध मेरे,


हृदय जो था शाँत,प्रिय! 
तेरे पवन से डोलता,
कौन? मेरे श्याम मन 
पर सैकड़ों रंग घोलता,


कौन? लिखता प्रेम का 
एक ग्रंथ,मेरे श्यामपट पर,
कौन?संजय! है बजाता 
बाँसुरी जमुना के तट पर,


तेरा वह परलौकिक सौंदर्य,
तेरा स्वाभाविक स्वर्गिक दर्प,
डसने को,मेरे मनुज का शील,
तत्पर वह तीव्र काम का सर्प,


मेरा ब्रह्मचर्य काल था संकट में,
रति! नववसंत वह अठखेली,
मैं साधुवंश तज,मनुज बना,
सम्मुख इहलौकिक रंगरेली,


तुम वर्षा,मैं निष्प्राण भूमि,मैं 
मनु तम सम,तुम ज्वलित दीप,
मैं निर्धन से धनवान हुआ,
निकले मोती,जब फटा सीप,


प्रस्ताव तेरा स्वीकार करूँ
या अवसर तज दूँ जीवन का,
तिरस्कार नारी का कैसे 
करता नर! नवयौवन का।"


(लगातार)


संजय कुमार शर्मा 

Saturday 17 March 2012

१५. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


१५.
"प्रेम-ग्रंथ"


"सृजक ने समय लिया पर्याप्त,
तुम्हारी रचना की अनुपम,
मानों तब जाग उठी थी सृष्टि,
कहीं पर थर्राता था यम,


रुन-झुन,रुन-झुन,खन-खन,खन-खन,
छनकें पायल,खनकें कंगन,
केसर से खिला शरीर तेरा,
आकर्षक ज्यों हल्दी-चंदन,


केशर,चंदन,मुल्तानी भी क्या,
तुम्हें निरख कर लज्जित थे,
रक्तिम आभा और शुभ्र देह,
रति लक्ष कोशिका सज्जित थे,


धक-धक धड़कन,हिलते नितम्ब,
थे कामुक गोल उभार तेरे,
मधुर-मदिर थे बोल,प्रिये! 
या थे रति के सीत्कार तेरे,


चाल! मृगी मानों चलती थी
उपवन में,आँखें मींचे,
छिन झपकें,छिन उठे पलक,
हृद्आँगन में अमृत सींचे,


दुग्ध काँति,स्निग्ध देह वह, 
दिव्य दीप्ति से सराबोर था,
साधक था मैं प्रेम मार्ग का,
आनन्दित अविकल चकोर था,


अनदेखा,अप्रतिम आकर्षण,
अतुलनीय,आश्चर्यजनक!
हृदय हिलाती मधुर हँसी,
हेमा! हिल्लोरित हास,छनक,


काम करोड़ों एक साथ मेरे 
तन-मन में व्याप्त लगे,
मद मनमोहक तेरी मदिरा के,
क्षुधा! सैकड़ों,हृदय जगे,


तुम प्रथम पहर में बाण चलाकर 
मुझ किशोर का रुधिर जमाती,
तुम मध्यरात्रि की शीतलहर जो 
मुझ अबोध के अस्थि जलाती,


क्षुधा जगी,यौवन मदिरा,मन
मदन मेरा मदमस्त हुआ,
जैसे शशि तेरे उगते ही,तम,
प्रखर भानु भी अस्त हुआ,


शरद काल की चंद्र-ज्योत्सना,
पूनम सी तुम धवल निशा,
श्याम-बाँसुरी मधुर तान,
गुंजायमान जो दिशा-दिशा,


तान वीणा की कभी तुम,
स्वर्ग-ध्वनि,सुमधुर सुरीली,
तुम कभी गौरी,कभी सीता
कभी श्यामल सजीली।" 


(लगातार)


संजय कुमार शर्मा 

Friday 16 March 2012

१४. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

१४.
"प्रेम-ग्रंथ"

"ध्वनि थाप प्रिये! तेरा चलना,
था ढोल-मृदंग,खनक करधन,
हिले-बजे जब तू डोले था,
कटि का सम्मोहक नर्तन,

मुझे स्वर्ग ले जाती थी,
वह देहयष्टि,प्रिय मनभावन,
धीर तेरा दैदीप्य धरा सम,
शील तेरा गंगा पावन,

जंघाओं का विस्तार अपरिमित,
अनायास मन क्षुधा जगाए,
सिरकेश निलम्बित,घर्षणरत
सँवरी चोटी पर कुसुम सजाए,

तेरी रेशमी केशराशि,उस
पर सुंदर गजरा महके,
उनकी घनता घनमेघ तुच्छ,
मधुमुख तेरा शशि सम दहके,

कटि व्यास क्षीण,उस पर करधन,
था कवच रोकता नयन-बाण ज्यों,
भौंहें कमान,रति तेरी दृष्टि से
बेधित मेरा शिरस्त्राण ज्यों,

मादक,मनमोहक स्वर्ग नृत्य!
परिलक्षित तेरे पृष्ठ,
अहा! स्वर्ग का नृत्य दिखा
करता,भामा! उत्कृष्ट,

दृष्टि पड़ी जब पृष्ठ पर तेरे,
हुआ प्रफुल्लित धृष्ट,
ज्यों कोई वरदान मिल गया
मनु को मेरे अभीष्ट,

पिंडलियाँ सुडौल,एड़ियाँ स्वच्छ,
गुलाबी रंग छलकता,
पाँव सुकोमल रक्त कमल थे,
शुद्ध-श्वेत सौंदर्य झलकता,

पग तेरे घुँघरू बजते थे,
लाल महावर उन्हें सजाएँ,
सजनी का सौंदर्य अनसुना,
सुनें,जान,शत रति लजाएँ,

जब तू चलती गुरूभार संभाले,
नर्तन करें नूपूर पाँव में,
नियति-नटी नित नृत्य करे,
नवनैन नचाए नीम छाँव में,

चरण-कमल कोमल पर पायल,
रंग गुलाबी सधा हुआ था,
मुझ प्रेमी का हृदय कंठ से
निकल वहीं पर बँधा हुआ था,

सोलहों श्रृंगार देखा
मेघ ने,चपला चमक में,
हृदय मेरा दीप्त,कामातुर
हुआ उस रति दमक में।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

Wednesday 14 March 2012

१३. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


१३.
"प्रेम-ग्रंथ"

"चौड़े कंधे,उन्नत छाती,उस
पर खिलते दो सरस कमल,
आमंत्रण से दृष्टि भरी,अस्फुट
ध्वनि लज्जा से जल-जल,

वक्ष सुशोभित थे उरोज
जो पुष्ट आम्रफल लगते थे,
कभी वासना दमित हृदय में,
कभी प्रेमरस जगते थे,

यों लगता था ज्यों पुंगीफल,
देवस्थल पर छिले रखे थे,
गहरी रेखा से थे विभक्त,
अन्यथा वहीं पर सिले रखे थे,

दुहरे उभार वे तरबूजे थे,
पके हुए थे फलक रहे थे,
उत्तम,उन्नत,उत्तल उरोज,
झीने वस्त्रों से झलक रहे थे,

ज्यों सागर को चीर निकलते,
वक्षस्थल पर द्वीप तुम्हारे,
मुक्ता के हाटक लगते थे,
प्रियतम उज्जवल सीप तुम्हारे,

स्वस्थ रखे दो शंकु शिखर
उन्मुक्त हिला करते थे,
पय-उद्गम उस स्थान
नुकीले फूल खिला करते थे,

वक्षस्थल परिपूर्ण शिखर द्वय,
प्रस्फुटित नाभि जोड़ा सरसिज,
रति की रहस्यमय रूपराशि से
अभिमंत्रित कातर मनसिज,

मधुकलश भरे थे मधुरस से,
मादक वक्षस्थल मधुशाला,
तुम चंद्र-चकोरी चारु-चंचला,
चकित-चमत्कृत मधुबाला,

यौवन नवरस भरा हुआ था,
वक्षस्थल पर आल्हादित,
फटे नैन जब दृष्टि पड़ी,
दो चंद्र इला पर आच्छादित,

वक्ष उन्नत श्रृंग थे और
कटि कटावों से भरा था,
रंग काया का सुनहला,
कनक-घट जैसे हरा था,

तेरे उत्तम,उन्नत उभार,
उर में उष्मा उत्पन्न करें,
ज्यों दो रतियाँ रत,साध्य कोई ले,
हल नवीन व्युत्पन्न करें,

प्रियकाया इतनी उज्जवल थी,
उसके सम्मुख सब श्याम लगे,
प्रियतमा,प्रेम की प्रतिमा,रति!
स्वर्गाकर्षण अभिराम लगे।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

Saturday 10 March 2012

१२. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


१२.
"प्रेम-ग्रंथ"


"वे तेरे चंचल नयन,हृद्-
ताल पर पंकज सरस थे,
रक्त लाली अधर रस की,
तृप्त करते मधुकलश थे,


हंस कूज,भौंरे की गुंजन,
कोयल कू-कू तेरी बोली,
कभी शुभ्र तुम नीमपुष्प तो 
कभी रसभरी मधुर निंबोली,


गले की सुंदरता उत्कृष्ट,
झूलता प्रियहिय तक गलहार,
लूटता प्रलयतुल्य कटिलोच,
नृत्यरत नव नितम्ब रतनार,


कोकिलकंठा थी,हंस देह से,
सिंह कटि से थी कामधेनु तुम,
नयन मृगी के,चाल हस्तिनी,
वनबाला थी कामरेणु तुम,


सुशोभित देह,स्वर्ण श्रृंगार,
जिनका विस्तार भार पर भार,
सुमन तुम सकुचाई सुकुमार,
श्वाँसों में सिमट रहा संसार,


मुखड़ा पय का अभिसार व्योम
तक,धैर्य अपूर्व झलकता था,
सुरसरि शशि सौंदर्य उष्ण से 
प्रातः ओस छलकता था,


चंदन सुगन्ध वह देहराशि,
सिन्दूर अधर आलता लाल,
टीका-कुमकुम-बिंदिया-काजल,
उन्मुक्त केश थे क्रुद्ध व्याल,


पयमुख विराट अनुहार उर्ध्व,
दक्षिण ढलते घनश्याम केश,
पूरब-पश्चिम द्विज चंद्र कर्ण,
उत्तर दिनकर ने धरा भेष,


घूँघट के पट खुले,अभ्र पर 
आभासित अनगिनत दामिनी,
सुरपति मोहित,उर्वशी नृत्यरत,
उद्भासित उद्दाम कामिनी,


गुलाबी-लाल हथेली थी,
जिनका स्पर्श मात्र,प्रिय ध्येय,
कहाँ से लाउँ मैं उपमान,
ऐसी तुम सर्वोत्तम उपमेय,


तुम्हारा अव्याख्येय सौंदर्य,
रति का तुम अतिरंजित प्रतिमान,
तुम्हारा शील स्वर्ग उपहार,
नारी का तुम समग्र सम्मान,


तुम मित्र मेरी हो मित्र,साँध्य-
वेला की सी तुम  रक्तिम हो,
तुम मेरे काव्य की पंक्ति प्रथम,
तुम मेरी लेखनी अंतिम हो।


(लगातार)


संजय कुमार शर्मा

११. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


११.
"प्रेम-ग्रंथ"

"चंचलता और होली का
कैसा गहरा संबंध,
जीवन का जीवन से मानों
रंग भरा अनुबंध,

होली में,मिटे बैर-झगड़े,
होली में,रंगों की बौछार,
होली में,मिले हृदय से हृदय,
होली है,रंगों का त्यौहार,

होलिका दहन से मिले प्रेरणा,
सत्य सदा जीता करता,
और असत्य सत् की ज्वाला में
रात्रि पहर तिल-तिल मरता,

प्रखर सत्य तब स्वर्ण निकलता
तप कर होली की ज्वाला से,
हर्षनाद गुम्फित अनुनादित,
नव-वसंत फागुन हाला से,

मन को मादक,मुदित करे
अब वही फागुनी हाला,
मन-मदन मानता कैसे जब,
सम्मुख अर्पित मधुबाला,

लज्जा से झुकी-झुकी आँखें,
रति-पीड़ा से कम्पित तन-मन,
वर्षा की प्रत्याशा से धरती का
अक्षुण्ण हर्षित यौवन,

होली में सफल प्रेम अभिव्यक्ति,
होली में प्रियतम का अभिसार,
होली में भ्रमर-पुष्प मिलते,
होली में मदन-मीत मनुहार,

देखो! दसों दिशाओं में,वह
रंग,गुलाल,अबीर उड़ रहा,
मिले सभी रंग,श्वेत!शाँति खग,
धन से ऋण स्वयमेव जुड़ रहा,

रंगों पर रंग चढ़े इतने,
सब मुखड़े एक समान हुए,
गढ़ते सब नैनों की भाषा,
पिचकारी तीर-कमान हुए,

पढ़ ले जो नैनों की भाषा,
सुन ले,सब कुछ जो बिना कहे,
सुन संजय!प्रेमी इस जग में
पाए कैसे कुछ! बिना सहे,

होली में रंग किससे खेलूँ,
मेरा रंग उड़ता और कहीं,
संग्राम पराजित सैनिक को,
जग में नहीं मिलता ठौर कहीं,

शिव-शक्ति नृत्यरत,दिक्-दिगन्त,
ब्रज में राधे-राधे बंशी,
रति-काम मोहते मद-मन को,
त्रेता मर्यादित रघुवंशी।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

१०. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


१०.
"प्रेम-ग्रंथ"

"तेरे दर्शन से,चंद्र किरण!
मेरे जलधर में,उठता ज्वार,
मेरी सलिला!ललचाता था,
तेरा वह सरसाता श्रृंगार,

थी चित्रगुप्त का चित्र तुम्हीं,
मेरे भविष्य का लेखा थी,
थी कला तुम्हीं,विज्ञान समूचा,
गद्य-पद्य अनदेखा थी,

धानी धरती,तुम धीर धार,
प्रिय! तुम सुगन्ध,संगीत-कर्ण,
तुम प्राणवायु,सुमधुर वाद्य,
तुम लहर-लहर,नव हरित पर्ण,

थी चपल उर्वशी,धवल मेनका
या रतिदेवी की प्रतिमा,
मृग-मरीचिका थी,सुंदर मरु की
या हरियाली हरीतिमा,

वे पलाश के पुष्प अधर थे
या दहके थे अंगारे,
थे कर्ण सुनहरे,चाँद के टुकड़े
या तारे प्यारे-प्यारे,

वह नैसर्गिक सौंदर्य अधर के,
याद मुझे शहतूत आ गए,
काली आँखें जामुन थीं बस
दृष्टि पड़ी,तुम मुझे भा गए,

तुम्हारे अधर,गुड़हली लाल,
उषा के रक्तकमल ज्यों ताल,
तुम्हारी दंत पंक्ति वह श्वेत,
मोती के दाने लगे प्रवाल,

कपोल कमल-दल थे,गुलाब
की पंखुड़ियाँ थीं,अधर,सुनो !
स्वर,तान बाँसुरी का तेरा,भाव-
भंगिमा भटकते भ्रमर ,सुनो !

कटे सेब,तेरे कपोल,
उनकी लाली,मृदु भोर,
रससिक्त फाँक थे होंठ,
संतरे के मदमाते मौर,

पके टमाटर लाल गाल,
चुप्पी!मिर्ची सी तीखी थी,
ऐ प्राणसुधा !तू बता मुझे
यह लज्जा किससे सीखी थी?

मदिर कँपकँपी अधरों पर,
चुपके से कुछ-कुछ कहें नयन,
श्वेत सलोना मुख,प्रिय का,
लुटता था मेरा तन-मन-धन,

कौतुक!कपोल के काले तिल,
काले जादू का काम करें,
कलम काँपती है कवि की ,
रति-काम जहाँ संग्राम करें।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

९. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

९.
"प्रेम-ग्रंथ"

"बिंदिया,चूड़ी,कंगन,मेहँदी,
तेरा सोलह श्रृंगार,प्रिये!
पायल,झुमके,करधन,नथनी,
मेरे सपने साकार,प्रिये!

मुखड़े पर टेसू की लाली,
गालों पर रंग गुलाल तेरे,
भौंहें तेरी श्यामल रेखा,
वह केशराशि ज्यों व्याल तेरे,

मस्तक पर सोने का टीका,
अधरों पर गुड़हल की लाली,
वे कर्णफूल शशि सम लखते,
लज्जा तेरी सोलह वाली,

पैरों की उंगली में बिछिया,
वह घुँघरू की झनकार,प्रिये!
वह मीन देह सम पिंडलियाँ,
गल शोभित नौलख हार,प्रिये!

नैनों मे मेघों के काजल,
ठुड्डी पर मोहक काला तिल,
संपूर्ण देह जलधर पावक,
मधु-क्षीर मध्य लाली मिल-मिल,

वाणी तेरी सम देव-नाद,
कोयल का सुमधुर गीत लगे,
सखियों से वह रससिक्त वाद,
बजता स्वर्गिक संगीत लगे,

वह, तेरी बाहों के घेरे थे
स्वर्गों के सत्कार,प्रिये!
अब क्षण-क्षण तेरी अभिलाषा,
अब विरह नहीं स्वीकार,प्रिये!

वह अनामिका की रत्नजड़ित
मुद्रिका,शुक्र ! आकाश लगे,
वह हँसना तेरा,रति! मादक,
चहुँ ओर पुष्प मधुमास लगे,

बालों में गजरे का गुच्छा,
चंदन सुगंधि,चम्पा महका,
जल-जल जाता है जीव मेरा,
स्पर्श तेरा दहका-दहका,

कमर पर करधन बल खाता,
कसा अम्बर,मदमस्त इला,
तेरा यौवन वह मदमाता,
मेरा पूरा साम्राज्य हिला,

नाभि पर एक मोती दैदीप्य,
भोला सा हृदय मेरा खींचे,
तेरा वह मधुर हास जलवृष्टि,
मेरी सूखी धरती सींचे,

तुम मेरी तपस्या का प्रतिफल,
तुम मेरा योग,जप,ध्यान,प्रिये!
इस जीव जन्म का तुम संबल,
तुम मेरा शर-संधान,प्रिये!"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

८. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


८.
"प्रेम-ग्रंथ"

"जलती होलिका समक्ष शपथ,
है स्मृत वह होलिका दहन,
इस पार कान्त,उस पार प्रिया,
नयनों से करना हृद्अर्पण,

स्वर्ण सुमन वह सरसों के,
झूमे हिय गेहूँ की बाली,
पावक पलाश के पुष्प,दहकते
प्रिय के होठों की लाली,

उन नयनों से कुछ तीर चले,
कुछ लगे मुझे,कुछ उड़े गगन,
ईश्वर से क्या प्रेरणा मिली,
जब मुझे मिला,रति आमंत्रण,

बिन कहे कहा:'तुम कल आना
मेरी गलियों में रंग लिए,
जग आलोचित मत करे तुम्हें,
आना साथी कुछ संग लिए।',

गाली-झगड़ों में मत रहना,
मत पीना मदिरा-भंग,सुनो!
मर्यादित होली में रहना,
वह शूद्रों का है ढंग सुनो!

रंग-प्रीत-फाग का यह अवसर,
उत्सव है ढोल-नगाड़ों का,
मांदर की थाप सुनो,सजना!
नहीं दिन यह युद्ध अखाड़ों का,

हाँ सुनो!जब मेरी सखियाँ होंगी
साथ,निकट तुम मत आना,
पल-भर तकना एकान्त,
रंग मलना,मुझको मत तरसाना,

तुम जब निकलोगे गलियों से,
मैं छत से रंग उड़ेलूँगी,
जब मेरे रंग में रंगा तुम्हें
देखूँ,तब होली खेलूँगी,

और हाँ!तुम अपना रंग मेरी
ड्योढ़ी पर रखकर चल देना,
और वहीं रखा कुछ रंग मेरा
अपने मुखड़े पर मल देना,

कुछ रंग चुरा लेना मुझसे,
कुछ अपने रंग मुझे देना,
जाने भविष्य में क्या होगा,
पल भर का संग मुझे देना,

चलो आज फिर होली आई,
जाने तुम प्रियतमा! कहाँ...?
यदि शेष प्रेम किंचित मुझसे,
रंगना मेरा प्रतिबिम्ब वहाँ..?

हा!प्रियतम सब याद मुझे है,
रंग,मेरे सर्वाँग,सुनो!
नियति नटी के हाथों में हा!
जीवन मेरा स्वांग सुनो।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

७. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

७.
"प्रेम-ग्रंथ"

"भादो का वह शुक्ल-चंद्र,
जब कृष्ण घटाओं में से जागा,
कारावासित हृदय-मीन,
जल देखा और निकल कर भागा,

ज्येष्ठ मास में सूर्य रश्मि सा,
तेज भरा तेरा यौवन था,
सूचक था घनघोर वृष्टि का,
जलता मानों तन-मन था,

सिर केश मध्य सिन्दूर रक्त,
और माथे पर प्यारी बिन्दिया,
हृदकोकिल मानों उन्मत होकर,
करने लगी कुहुक,निंदिया !

पूर्णचंद्र था भाल सुशोभित,
नयन मदभरे कजरारे,
दिवा भानु दैदीप्य प्रज्जवलित,
देख निशाचर तम हारे,

खुले केश लहराते थे ज्यों
जलधर बरसे,जलधर पर,
दृष्टि दिग्भ्रमित हुई,
श्याम रंग अम्बर था श्वेत अम्बर पर,

सुन! तेरे माथे की बिन्दिया,
चंद्रमा है,भाल अम्बर,
तेरी भृकुटि हैं धनुष,और
प्रियतमा!तू रति धनुर्धर,

चंचल तेरे नेत्र कदाचित
मुझ पर ही तो टिकते थे,
मुझमें सिमटे अनमोल धरोहर,
तुझ पर ही तो बिकते थे,

भौंहें सघन कमान,
नेत्र मृगनयनी दर्पण,
सरस अधर सुंदर मुखड़े पर
सब कुछ अर्पण,

माया तेरी मुस्कान !
ग्रीष्म में शीत बरसता,
नवल निरंकुश नैन,
जलधि गंभीर गरजता,

स्वर्ग सा सौंदर्य भोला,
देखकर साम्राज्य डोला,
मोरनी सी चाल,जैसे
हंस को न्यौता अबोला !

मुख शोभित थे रक्त स्फटिक
या मोती! दाड़िम के दाने,
तेरी समीपता कामसूत्र
मानों रति आई समझाने,

उन्नत ललाट पर कुमकुम की
बिन्दी,अम्बर पर दिनकर,
मुखड़ा तेरा सुधा सिक्त,
सर्वस्व समर्पण तत्पर।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

६. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

६.
"प्रेम-ग्रंथ"

"वह कामोद्दीपक नवयौवन,
मैं कामातुर,पथराती सोच,
कसी डोरी से बँधा हृदय,
करें हतप्रभ नितम्ब के लोच,

मनमोहक,मादक पर्वत!
करते जाते थे नृत्य,
जिन्हें देख मैं विवश !
काम का बनता जाता भृत्य,

गौर-वर्ण,माँसल शरीर,
आमंत्रण तन-मन-धन का,
मैं आंदोलित हो गया,मिला
जब मुक्त निमंत्रण यौवन का,

कँपते तेरे उत्तुंग शिखर,
हुआ था जब कटाक्ष संघर्ष,
जल-जल लज्जा से हुई,
प्रतीक्षित हुए मेरे स्पर्श,

पृष्ठ अवतल,सुगठित देह,
मुखड़े पर लज्जा की लाली,
चित्त स्थिर तुम वर्ण मेरा
और प्राण,अप्सरा मतवाली,

कोटि सूर्य अगणित किरणों से
चन्द्रबदन वह दमक रहा था,
दीप्त-दामिनी दीन हुई,
मुखचन्द्र तुम्हारा चमक रहा था,

तुम्हारी सुन्दरता सम्पूर्ण,
मुझे करती थी आल्हादित,
भागा हर अंधकार डर कर,
तेरा मुखमंगल जब प्रस्फुटित,

प्रथम वृष्टि सी देहयष्टि,
व्यक्तित्व चाँदनी शीत लपेटे,
शुष्क इला मधुरस बूँदों से,
श्रंगारित सौंदर्य समेटे,

सावन की हरियाली थी,
तुम भादो की काली रातें,
कौन पुरुष उत्तेजित न हो,
सुनकर प्यार भरी बातें,

ऋतुराज शीत में श्वाँस तेरे,
शीतोष्ण तपन बरसाते थे,
शरद-पूर्णिमा,चंद्र-ज्योत्सना,
हृदय-कुसुम हरषाते थे,

तुम वसन्त में आम्रमौर थी,
पिकवाणी थी रस घोले,
आग्रह तेरा अतिरिक्त मधुर,
सुन जिसको मन डगमग डोले,

अचम्भित हुए मेरे दृग-पलक,
प्रकम्पित लुप्त तुम्हारी झलक,
आँचल छिन चढ़े,दिखे छिन ढलक,
छवि से अनवरत रस रहा छलक।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

५. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

५.
"प्रेम-ग्रंथ"

"नारी चुंबक,पौरुष वैद्युत,
जब प्रेम कहीं वह पाता है,
आकर्षण प्रकृति का मूल नियम,
मन अनायास खिंच जाता है,

जीवन का संगीत तुम्हीं,
तुमसे फूटे थे मधुर तान,
हृद-हाटक हिल्लोरित जब
तुमने फूँके निःशब्द बाण,

शुभ्र-संदली-सहृदय-सीधी,
सीपी में मोती सुन्दर,
बाहर से दैदीप्यमान वह,
स्वर्ण सुनहरी रति अन्दर,

सावन-भादो में गोरी !
तुम गौरी मुझे लुभाती थी,
भोले-भाले नट शिव को,
तुम नटखट नाच नचाती थी,

मुझमें तुम थी श्लेष,प्रियतमा!
यमक मेरा आलिंगन था,
अनुप्रास अनगिनत आलिंगन,
हंस उपमा तेरा तन था,

मैं परिधि पर द्रव्यमान,
तुम केन्द्र दिशा अभिकेन्द्र त्वरण,
तेरे परितः गति संकल्पित
और तेरे बिन गंतव्य मरण,

मुझे लालसा उत्कट,
तुमसे मिलने को ललचाती थी,
मंदिर की घंटी भी तब
पग-पायल सी भरमाती थी,

छँटे बादल,छाए उल्लास,
लगे उजियार,दस दिशा व्याप्त,
आगमित होते ही मधुमास,
भामिनी संग सारे सुख प्राप्त,

पदचाप तुम्हारा सुनते ही
तब रक्त प्रवाहन बढ़ता था,
विकट प्रतीक्षा तब प्रतीत,
प्रियतमा-मूर्ति जब गढ़ता था,

मैं नौका तुम पतवार,प्रियतमा!
मैं दीपक,तुम बाती,
नव उत्तेजन प्रारंभ मेरा,
पढ़ते ही तेरी पाती,

प्रियतमा मेरी,प्रतिबिम्ब रति,
अल्हड़ यौवन,पर कोमल तन,
चंचल दृग,सुन्दर आकृति,
वह कृष्ण केश,चंदन चितवन,

छम-छम पायल की मधुर ध्वनि,
खन-खन कंगन के स्वर्ग-खनक,
सुन-सुन संगीत परम का सत्,
रुन-झुन करधन से कमर-लचक।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

४. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

४.
"प्रेम-ग्रंथ"

"चेहरे पर था रंग गुलाबी,
वह अक्षत यौवन थी,
पर पीड़ा पर मैं तड़पा था
ज्यों वह मेरा तन थी,

कब बढ़े नीर अनुपात ?भले ही
जलधर,जलधर पर बरसे,
प्रतिपल प्रेरित प्रणय प्रियतमा!
प्यासा पानी पाकर तरसे,

नयन,नयन से मिले नहीं कि
प्रथम दृष्टि में प्यार हो गया,
अब तक जिसे सहेज रखा था,
हृदय न जाने कहाँ खो गया,

दत्तचित्त दुर्भेद्य दुर्ग को
दीर्घबाहु तुमने भेदा,
मैं लौहपुरुष,मुझको लिप्सा
से लिप्त तीर ने छेदा,

एक हवा का निर्दय झोंका,
अस्त्र लिए मुझ पर दौड़ा,
मन तुरंग पर शस्त्र सुसज्जित,
मुझ पर चला रहा कोड़ा,

हृस्व हृदय,हय सदृश हो गया,
करने लगा हवा से बातें,
हुई कनपटी लाल,जम गया
रक्त निकट जाते जाते,

उंची-नीची,लयबद्ध ताल,
सौंदर्य भार से चढ़ा हुआ,
मैं ढीठ नहीं था फिर भी क्यों?
आँखें गाड़े बस अड़ा हुआ,

उषा किरण की लाली थी तुम,
जो पूरब में व्याप्त भोर से,
या आभा जो शुक्र समेटे,
सांध्य उगे पश्चिमी छोर से,

तुम पूर्ण चंद्र,प्रज्जवलित सूर्य,
तुम अंतरिक्ष तारामंडल,
दृष्टि मिली मन खिले,प्रिये!
यह जीवन मेरा हुआ मंगल,

अंगड़ाई तुम अलसाई,
अनबूझ अंतरा अनजाना,
अनकही,अपरिमित आस जगाती
तुम अमूल्य ताना-बाना,

तेरी परिधि में सिमट गया,
मेरे जीवन का वृत्त,
तुम केन्द्र बिन्दु बन गई मेरी,
गतिमान हो गया चित्त,

पत्र लिख कर,पत्र पर,
तुमने दिया था एक दिन,
कह दिया था मूक नेत्रों से
समर्पण!कुछ कहे बिन।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

३. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

३.
"प्रेम-ग्रंथ"

"प्रेम-पाश थे मूक नयन,
सब कह देते थे,
आमंत्रण वे,प्रणयसिक्त
कलरव देते थे,

मधुकलश सरीखे चलती थी,
वह सोमरसों को लगे लजाती,
एक सुगंध का झोंका थी
वह जब-जब आती,

कौन!हाँकता,मेरे मन को,
ले जाता किस ओर रे,
श्याम-सलोनी,साँवल गोरी
थी,मेरी चितचोर रे,

जब हँसती थी वह मधुबन थी,
कुछ कहती थी तो अमृत था,
थी किसी जन्म का पुण्य कदाचित,
सोच-सोच मैं विस्मित था,

कंगन की थी मधुर खनक,
उसकी कोयल सी बोली थी,
वही दीवाली मेरे सुखों की,
मेरे दुखों की होली थी,

बादलों की कालिमा
उसके लरजते केश थे,
बंद किन्तु कँपकँपाते
होठ में संदेश थे,

नासिका उत्कृष्ट थी,
अप्रतिम नयन गंभीर थे,
मोतियों की दंतपंक्ति
सम मचलते क्षीर थे,

गुलाबी पंखुड़ियों सम होठ,
खिले जो प्रातः लाल कली
आमंत्रित करते वे लरज-लरज,
रसीली ज्यों अंगूर फली,

वाणी में सुमधुर हास समेटे,
चाल हंस की भाँति लगी,
झर-झर करता झरना थी वह
कल्पवृक्ष की काँति लगी,

स्फूर्त चेतना मेरी थी,
नवयौवन की अंगड़ाई थी,
नव-प्रभात की पावन वेला
थी,संध्या अलसाई थी,

था चित्त मेरा तब ब्रह्मलीन,
प्रियतमा!मुझे तुम भाती थी,
एक हवा के झोंके से जब
चुनरी उड़-उड़ जाती थी,

शैशविक सौंदर्य था और
बाल्यक्रीड़ा थी चपलता,
प्रौढ़ सी विकसित मना थी
पर युवा मन कब संभलता?"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

Friday 9 March 2012

२. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

२.
"प्रेम-ग्रंथ"

"सोते-जगते,हँसते-गाते,सब
ओर लगी तुम व्याप्त मुझे,
और नहीं कुछ मुझे चाहिए,
प्रेम-दृष्टि पर्याप्त मुझे,

जीवन को झंकृत करती थी,
चेष्टा वह,मादक अठखेली,
मधुशाला की मदभरी तान,
तुम आतुर,अल्हड़,अलबेली,

पलक झपकते ही बदला
मानों प्रकृति ने वेश,
मुखचंद्र चांदनी पर चपला
से चमक उठे थे केश,

वह निहारना,तेरा मुझे,छिप
कर अपलक,आनंदित दृग,
मुझसे दृष्टि मिल जाते ही,
चेहरे पर खिलता,भटका मृग,

तुम प्रकटी सम्मुख प्रथम बार
ज्यों प्रकट हुई थी माया,
उल्लास नयन में,प्रेम हृदय
में प्रथम बार था छाया,

आकर्षण तेरा वह उन्मुक्त,
निमंत्रण देता मुझको मौन,
निशा-निस्तब्ध-चपल-कम्पित,
मधुर संगीत बजाता कौन?

तपन तपाती मुझ धरती को,
शीतल तुमने किया मुझे,
प्रेमसिक्त पग धरा धरा पर,
मोक्ष प्यार का दिया मुझे,

मैं विस्मित था,तुम चुपके-
चुपके,कदम बढ़ाती चली गई,
मुझ निरे निरक्षर से नर को
तुम प्रेम पढ़ाती चली गई,

प्रणय का संदेश था या
पायलों की वह छनक थी,
आमंत्रण था मूक चुप में,
हर लहर कंगन खनक थी,

मौन कह देता था सब कुछ,
कौंधती बिजली चमकती,
रस से भीगा था मेरा मन,
दृष्टि में जब तुम दमकती,

वह तेरा मुझको कहना,
तुम मेरी थी,वह बचपन था,
चंचल मन,उद्विग्न आचरण-
युक्त तेरा वह यौवन था,

चीर जामुनी चीर,चमक चिर-
शुक्ल चंद्र ज्यों उदित हुआ,
मस्त,मदिर,मादक मलयानिल,
मन मनसिज मेरा मुदित हुआ,

तुमको छूकर,शीतोष्ण लहर
जो मेरे तन तक आती थी,
मेरा मन नागिन नृत्य करे,
चंदन सुगन्ध वह लाती थी।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

१. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

१.
"प्रेम-ग्रंथ"

"मैं था अल्हड़ एक नवयुवक,
श्वाँसें मेरी तरंगित थीं,
अकथ भावना प्रेमगीत की,
मेरे लिये अपरिचित थी,

रहता था अपनी धुन में,
जागा-जागा,खोया-खोया,
दुर्गम प्रेम मार्ग भयातुर,
भागा-भागा,सोया-सोया,

अनगढ़ सी तुम,अल्हड़ थी तुम,
अकस्मात आगमित हुई,
जड़ जगत जला,जागा चेतन,
जब जादू तुम अवतरित हुई,

तुम कौन ? प्रश्न का उत्तर
था तब मेरे मन में जागा,
मैं नौका तुम पतवार,
सुनहरा स्वर्ण संयोग सुहागा,

कदली कला,चमकती ग्रीवा,
कंधों पर यौवन का भार,
मैं क्या रहा,हुई तुम सब कुछ,
तू ही था मेरा संसार,

तो मैं किशोर जिज्ञासु हो गया,
वयःसंधि की क्रीड़ा का,
पर अनुमान मुझे कब था,
अल्पवय प्रेम की पीड़ा का।

धवल नयन,उत्कृष्ट नासिका,
अधर मद भरे मधुकलश,
प्रियतम का सौंदर्य कदाचित,
करता जाता था परवश,

मृदुल लता सी देहयष्टि,
तम को झंकृत करता निःश्वास,
कम्पित पलाश के अधर जगाते थे,
अंतस मधुरिम विश्वास,

घटा घनघोर,काले केश
उड़ते थे,पवन के जोर से,
मलयानिल से सिक्त नागिन
नृत्य करती भोर से,

प्रेम की साक्षात देवी,
काम का धनु कटि प्रदेश,
वक्षस्थल सागर समुन्नत,
नैन कहते थे संदेश,

रति मूल प्रकृति तुम लज्जा थी,
मानों पुष्पों से बनी हुई,
निष्पाप नयन की प्रत्यंचा,
कामुक कमान सी तनी हुई,

अपरिमित आकर्षण अंजान!
लिये जाता था तेरी ऒर,
हवा में अश्व उड़े था ज्यों,
खिंचा जाता था मैं बिन डोर।

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

"मंगलाचरण" "श्री श्री पशुपतिनाथ वंदन"

मंगलाचरण

"श्री श्री पशुपतिनाथ वंदन"

"जय जय हो! भोलेनाथ तुम्हारी,
तुम हो घट-घट वासी,
तुम योगी हो,महातपी हो,
जय जय हो! औघड़ सन्यासी,

हो त्रिनेत्र तुम,प्रथम नेत्र से
सृष्टि करो,मन मैल धुले,
द्वितीय चक्षु से वरदाता,
संहारक!दृग जब तृतीय खुले,

विश्वेश्वर!व्याल,विशेष तुम्हें प्रिय,
विश्व-विषय विष स्वयं समेटा,
हे नीलकंठ!नटराज नृत्य कर,
नागराज को गले लपेटा,

रक्षार्थ जगत,हे उमा महेश्वर!
रत्न हलाहल पान किया,
हे भूतनाथ!तुम काम विजेता,
कर्म-योग-तप-ध्यान दिया,

तुम प्राणवायु,तुम जल-थल-नभ,
नाड़ी-अस्थि-रुधिर तुम हो,
तुम ज्ञानेन्द्रिय,तुम कर्मेन्द्रिय,
षष्ठेन्द्रिय!मंत्र मदिर तुम हो,

तुम रुधिर गति,तुम बुद्धि मति,
तुम आज प्राण,तुम कल प्रयाण,
तुम जन्म मेरे, तुम हृद्कम्पन,
तुम साक्ष्य जीव,तुम सत प्रमाण,

हे भूतेश्वर! तुम आदि-भूत,
भविष्य-अंत ,तुम वर्तमान,
तुम कर्मयोग,तुम ध्यानजोग,
तुम विषयभोग,तुम वर्धमान,

निर्गुण अल्लाह,सगुण जीसस,
तुम ऋषभदेव,तुम जय जिनेन्द्र,
तुम धर्म इन्द्र,तुम कामदेव,
इच्छा मेरी तुम,जय जितेन्द्र,

जय जय त्रिदेव!तुम इष्ट देव,
तुम दयावान,तुम क्षमाशील,
तुम बिल्बपत्र,चंदन सुगंध
सागर समीर,तुम मलयानिल,

हे पशुपति! तुम नेत्र मेरे,
तुम जिह्वा,तुम वाणी हो,
मरघटवासी तुम,मुनि तपस्वी,
भूमि तुम्हीं,तुम पानी हो,

तुम स्वयं समय,स्थिति तुम्हीं,
गतिमान समुद्र प्रवाल तुम्हीं हो,
तुम जन्म-वृद्धि ,तुम जरा-मृत्यु,
हो कापालिक शिव,काल तुम्हीं हो,

तुम कण-कण में शंभू! भूतागत,
तुम वर्तमान के समय प्रणेता,
क्षण-क्षण,युग-युग पशुपति प्रवाहित,
कलियुग-द्वापर-सतयुग-त्रेता,

तुम उत्तर हो,तुम दक्षिण हो,
तुम पूरब-पश्चिम के स्वामी,
नक्षत्र,चंद्र,तारे अपार,
प्रभु कोटि सूर्य तुम अविरामी,

हे मृत्युन्जय!तुम्हें सुमिर कर
कलम गह लिया हाथ,
हर-हर त्रिपुरारी महादेव!
हर क्षण तुम रहना साथ,

हे कृपानिधि!कवि-कलम कृपा,
यह प्रेम ग्रंथ मैं गढ़ता हूँ,
तुमने ही संजय नियति लिखी,
वह पत्र,आज मैं पढ़ता हूँ।"

प्रेमग्रंथ - संजय कुमार शर्मा