Thursday 22 March 2012

१७. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

१७.
"प्रेम-ग्रंथ"

"तुम गंगा की पावन धारा,
तुम ओज! नदी चंबल का जल,
तुम कावेरी का मधुर गीत,
गोमती सुधा तुम उत्श्रृंखल,

तुम यमुना की तान सुरीली,
शताब्दियों की गाथा थी,
तुम प्राणदायिनी सिन्धु नदी,
प्रियतम का उन्नत माथा थी,

सतलुज,चिनाब,रावी,झेलम
और व्यास चंचला प्यार,प्रिये!
जीवन जल देते सदा प्रवाहित
तप ताप्ती की धार,प्रिये!

तुम कामदेव का अस्त्र,
हिमालय की विस्तृत माया घाटी,
रति का सोलह श्रृंगार तुम्हीं,
तुम हिन्द देश,पावन-माटी,

तुम उत्तर का समतल पठार,
तुम मध्यदेश मैकल-माला,
तुम बंग भूमि का साँध्य-गीत,
तुम महुए की पहली हाला,

तुम जलधर की थी रजत लहर,
तुम ब्रह्मपुत्र हुंकार,प्रिये!
तुम स्वर्ण धातु सम सोन,सरित्!
तुम महानदी विस्तार प्रिये!

पर्वत माला प्राकृतिक दृश्य,
सुंदरता का अभिसार,प्रिये!
सुनता था जग में प्रेम!भँवर,
तुम थीं वैतरणी पार,प्रिये!

अश्व-शक्ति तुम मेरी प्रिये,
तुम अर्ध अंग स्वामिनी मेरी,
प्रियतम हृद्उपवन अवस्थिता,
तुम वाम अंग दामिनी मेरी,

कोयल,कोयल से ही बोले
तो हम हंसों का क्या होगा,
यदि मीरा सम प्रेम ना मिले,
यदुवंशों का क्या होगा,

मदिर-मदिर मेरे कानों में
कौन बोलता,भंग,प्रिये!
और मेरे सूने आँगन में
कौन घोलता रंग,प्रिये!

क्षमता तेरी कभी नष्ट
न हो मेरी पाती,पढ़ते,
अभी मत ठहर मेरी,प्रियतमा!
लक्ष्य दिशा,आगे बढ़ते,

मैं क्या जानूँ,रति क्रीड़ा क्या?
मैं भोला था,सज्ञान नहीं था,
मैं क्या जानूँ,रति पीड़ा क्या?
क्या यह मेरा अज्ञान नहीं था।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

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