Saturday 10 March 2012

७. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

७.
"प्रेम-ग्रंथ"

"भादो का वह शुक्ल-चंद्र,
जब कृष्ण घटाओं में से जागा,
कारावासित हृदय-मीन,
जल देखा और निकल कर भागा,

ज्येष्ठ मास में सूर्य रश्मि सा,
तेज भरा तेरा यौवन था,
सूचक था घनघोर वृष्टि का,
जलता मानों तन-मन था,

सिर केश मध्य सिन्दूर रक्त,
और माथे पर प्यारी बिन्दिया,
हृदकोकिल मानों उन्मत होकर,
करने लगी कुहुक,निंदिया !

पूर्णचंद्र था भाल सुशोभित,
नयन मदभरे कजरारे,
दिवा भानु दैदीप्य प्रज्जवलित,
देख निशाचर तम हारे,

खुले केश लहराते थे ज्यों
जलधर बरसे,जलधर पर,
दृष्टि दिग्भ्रमित हुई,
श्याम रंग अम्बर था श्वेत अम्बर पर,

सुन! तेरे माथे की बिन्दिया,
चंद्रमा है,भाल अम्बर,
तेरी भृकुटि हैं धनुष,और
प्रियतमा!तू रति धनुर्धर,

चंचल तेरे नेत्र कदाचित
मुझ पर ही तो टिकते थे,
मुझमें सिमटे अनमोल धरोहर,
तुझ पर ही तो बिकते थे,

भौंहें सघन कमान,
नेत्र मृगनयनी दर्पण,
सरस अधर सुंदर मुखड़े पर
सब कुछ अर्पण,

माया तेरी मुस्कान !
ग्रीष्म में शीत बरसता,
नवल निरंकुश नैन,
जलधि गंभीर गरजता,

स्वर्ग सा सौंदर्य भोला,
देखकर साम्राज्य डोला,
मोरनी सी चाल,जैसे
हंस को न्यौता अबोला !

मुख शोभित थे रक्त स्फटिक
या मोती! दाड़िम के दाने,
तेरी समीपता कामसूत्र
मानों रति आई समझाने,

उन्नत ललाट पर कुमकुम की
बिन्दी,अम्बर पर दिनकर,
मुखड़ा तेरा सुधा सिक्त,
सर्वस्व समर्पण तत्पर।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

No comments:

Post a Comment