Saturday 10 March 2012

११. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


११.
"प्रेम-ग्रंथ"

"चंचलता और होली का
कैसा गहरा संबंध,
जीवन का जीवन से मानों
रंग भरा अनुबंध,

होली में,मिटे बैर-झगड़े,
होली में,रंगों की बौछार,
होली में,मिले हृदय से हृदय,
होली है,रंगों का त्यौहार,

होलिका दहन से मिले प्रेरणा,
सत्य सदा जीता करता,
और असत्य सत् की ज्वाला में
रात्रि पहर तिल-तिल मरता,

प्रखर सत्य तब स्वर्ण निकलता
तप कर होली की ज्वाला से,
हर्षनाद गुम्फित अनुनादित,
नव-वसंत फागुन हाला से,

मन को मादक,मुदित करे
अब वही फागुनी हाला,
मन-मदन मानता कैसे जब,
सम्मुख अर्पित मधुबाला,

लज्जा से झुकी-झुकी आँखें,
रति-पीड़ा से कम्पित तन-मन,
वर्षा की प्रत्याशा से धरती का
अक्षुण्ण हर्षित यौवन,

होली में सफल प्रेम अभिव्यक्ति,
होली में प्रियतम का अभिसार,
होली में भ्रमर-पुष्प मिलते,
होली में मदन-मीत मनुहार,

देखो! दसों दिशाओं में,वह
रंग,गुलाल,अबीर उड़ रहा,
मिले सभी रंग,श्वेत!शाँति खग,
धन से ऋण स्वयमेव जुड़ रहा,

रंगों पर रंग चढ़े इतने,
सब मुखड़े एक समान हुए,
गढ़ते सब नैनों की भाषा,
पिचकारी तीर-कमान हुए,

पढ़ ले जो नैनों की भाषा,
सुन ले,सब कुछ जो बिना कहे,
सुन संजय!प्रेमी इस जग में
पाए कैसे कुछ! बिना सहे,

होली में रंग किससे खेलूँ,
मेरा रंग उड़ता और कहीं,
संग्राम पराजित सैनिक को,
जग में नहीं मिलता ठौर कहीं,

शिव-शक्ति नृत्यरत,दिक्-दिगन्त,
ब्रज में राधे-राधे बंशी,
रति-काम मोहते मद-मन को,
त्रेता मर्यादित रघुवंशी।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

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