१५.
"प्रेम-ग्रंथ"
"सृजक ने समय लिया पर्याप्त,
तुम्हारी रचना की अनुपम,
मानों तब जाग उठी थी सृष्टि,
कहीं पर थर्राता था यम,
रुन-झुन,रुन-झुन,खन-खन,खन-खन,
छनकें पायल,खनकें कंगन,
केसर से खिला शरीर तेरा,
आकर्षक ज्यों हल्दी-चंदन,
केशर,चंदन,मुल्तानी भी क्या,
तुम्हें निरख कर लज्जित थे,
रक्तिम आभा और शुभ्र देह,
रति लक्ष कोशिका सज्जित थे,
धक-धक धड़कन,हिलते नितम्ब,
थे कामुक गोल उभार तेरे,
मधुर-मदिर थे बोल,प्रिये!
या थे रति के सीत्कार तेरे,
चाल! मृगी मानों चलती थी
उपवन में,आँखें मींचे,
छिन झपकें,छिन उठे पलक,
हृद्आँगन में अमृत सींचे,
दुग्ध काँति,स्निग्ध देह वह,
दिव्य दीप्ति से सराबोर था,
साधक था मैं प्रेम मार्ग का,
आनन्दित अविकल चकोर था,
अनदेखा,अप्रतिम आकर्षण,
अतुलनीय,आश्चर्यजनक!
हृदय हिलाती मधुर हँसी,
हेमा! हिल्लोरित हास,छनक,
काम करोड़ों एक साथ मेरे
तन-मन में व्याप्त लगे,
मद मनमोहक तेरी मदिरा के,
क्षुधा! सैकड़ों,हृदय जगे,
तुम प्रथम पहर में बाण चलाकर
मुझ किशोर का रुधिर जमाती,
तुम मध्यरात्रि की शीतलहर जो
मुझ अबोध के अस्थि जलाती,
क्षुधा जगी,यौवन मदिरा,मन
मदन मेरा मदमस्त हुआ,
जैसे शशि तेरे उगते ही,तम,
प्रखर भानु भी अस्त हुआ,
शरद काल की चंद्र-ज्योत्सना,
पूनम सी तुम धवल निशा,
श्याम-बाँसुरी मधुर तान,
गुंजायमान जो दिशा-दिशा,
तान वीणा की कभी तुम,
स्वर्ग-ध्वनि,सुमधुर सुरीली,
तुम कभी गौरी,कभी सीता
कभी श्यामल सजीली।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा
No comments:
Post a Comment