Saturday 10 March 2012

५. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

५.
"प्रेम-ग्रंथ"

"नारी चुंबक,पौरुष वैद्युत,
जब प्रेम कहीं वह पाता है,
आकर्षण प्रकृति का मूल नियम,
मन अनायास खिंच जाता है,

जीवन का संगीत तुम्हीं,
तुमसे फूटे थे मधुर तान,
हृद-हाटक हिल्लोरित जब
तुमने फूँके निःशब्द बाण,

शुभ्र-संदली-सहृदय-सीधी,
सीपी में मोती सुन्दर,
बाहर से दैदीप्यमान वह,
स्वर्ण सुनहरी रति अन्दर,

सावन-भादो में गोरी !
तुम गौरी मुझे लुभाती थी,
भोले-भाले नट शिव को,
तुम नटखट नाच नचाती थी,

मुझमें तुम थी श्लेष,प्रियतमा!
यमक मेरा आलिंगन था,
अनुप्रास अनगिनत आलिंगन,
हंस उपमा तेरा तन था,

मैं परिधि पर द्रव्यमान,
तुम केन्द्र दिशा अभिकेन्द्र त्वरण,
तेरे परितः गति संकल्पित
और तेरे बिन गंतव्य मरण,

मुझे लालसा उत्कट,
तुमसे मिलने को ललचाती थी,
मंदिर की घंटी भी तब
पग-पायल सी भरमाती थी,

छँटे बादल,छाए उल्लास,
लगे उजियार,दस दिशा व्याप्त,
आगमित होते ही मधुमास,
भामिनी संग सारे सुख प्राप्त,

पदचाप तुम्हारा सुनते ही
तब रक्त प्रवाहन बढ़ता था,
विकट प्रतीक्षा तब प्रतीत,
प्रियतमा-मूर्ति जब गढ़ता था,

मैं नौका तुम पतवार,प्रियतमा!
मैं दीपक,तुम बाती,
नव उत्तेजन प्रारंभ मेरा,
पढ़ते ही तेरी पाती,

प्रियतमा मेरी,प्रतिबिम्ब रति,
अल्हड़ यौवन,पर कोमल तन,
चंचल दृग,सुन्दर आकृति,
वह कृष्ण केश,चंदन चितवन,

छम-छम पायल की मधुर ध्वनि,
खन-खन कंगन के स्वर्ग-खनक,
सुन-सुन संगीत परम का सत्,
रुन-झुन करधन से कमर-लचक।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

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