Wednesday 14 March 2012

१३. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


१३.
"प्रेम-ग्रंथ"

"चौड़े कंधे,उन्नत छाती,उस
पर खिलते दो सरस कमल,
आमंत्रण से दृष्टि भरी,अस्फुट
ध्वनि लज्जा से जल-जल,

वक्ष सुशोभित थे उरोज
जो पुष्ट आम्रफल लगते थे,
कभी वासना दमित हृदय में,
कभी प्रेमरस जगते थे,

यों लगता था ज्यों पुंगीफल,
देवस्थल पर छिले रखे थे,
गहरी रेखा से थे विभक्त,
अन्यथा वहीं पर सिले रखे थे,

दुहरे उभार वे तरबूजे थे,
पके हुए थे फलक रहे थे,
उत्तम,उन्नत,उत्तल उरोज,
झीने वस्त्रों से झलक रहे थे,

ज्यों सागर को चीर निकलते,
वक्षस्थल पर द्वीप तुम्हारे,
मुक्ता के हाटक लगते थे,
प्रियतम उज्जवल सीप तुम्हारे,

स्वस्थ रखे दो शंकु शिखर
उन्मुक्त हिला करते थे,
पय-उद्गम उस स्थान
नुकीले फूल खिला करते थे,

वक्षस्थल परिपूर्ण शिखर द्वय,
प्रस्फुटित नाभि जोड़ा सरसिज,
रति की रहस्यमय रूपराशि से
अभिमंत्रित कातर मनसिज,

मधुकलश भरे थे मधुरस से,
मादक वक्षस्थल मधुशाला,
तुम चंद्र-चकोरी चारु-चंचला,
चकित-चमत्कृत मधुबाला,

यौवन नवरस भरा हुआ था,
वक्षस्थल पर आल्हादित,
फटे नैन जब दृष्टि पड़ी,
दो चंद्र इला पर आच्छादित,

वक्ष उन्नत श्रृंग थे और
कटि कटावों से भरा था,
रंग काया का सुनहला,
कनक-घट जैसे हरा था,

तेरे उत्तम,उन्नत उभार,
उर में उष्मा उत्पन्न करें,
ज्यों दो रतियाँ रत,साध्य कोई ले,
हल नवीन व्युत्पन्न करें,

प्रियकाया इतनी उज्जवल थी,
उसके सम्मुख सब श्याम लगे,
प्रियतमा,प्रेम की प्रतिमा,रति!
स्वर्गाकर्षण अभिराम लगे।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

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