१९.
"प्रेम-ग्रंथ"
"आगत समय का स्वप्न क्या,
और भाग्य क्या,प्रारब्ध क्या,
एक द्यूत-क्रीड़ा प्रेम, संजय!
प्राप्य क्या और लब्ध क्या,
कर्म की, संजय! कलम यदि,
वाक्य क्या और शब्द क्या,
लिख,प्रखर दिनकर की कहानी,
प्रिय निशा निस्तब्ध क्या,
तो प्रेम करना,स्वप्न से भी,
कर्म है,संजय! मेरा,और
स्वप्न को साकार करना,
भाग्य पर सुविजय मेरा,
सैकड़ों रविकर का तुझमें
ओज है वीराँगना,
मद-मधुर माधुर्यों में डूबी
प्रसादों की व्यंजना,
तू मेरी अमिधा कलम,
हर पृष्ठ पर दृष्टव्य है,
तू मेरी अभिलक्षणा,
संजय का तू वक्तव्य है,
प्रेम करना इस जगत में,
क्या नहीं संग्राम है,
प्रेम मर्यादा पुरुष है
तो कभी घनश्याम है,
'प्रेम कर ले',पुस्तकों में,
धर्मग्रंथों में पढ़ा था,
पर प्रेम में मेरे,जगत का
आवरण किंचित मढ़ा था,
यह जगत सतयुग कभी,
त्रेता कभी, द्वापर कभी,
और भाग्य के हाथों के
कठपुतले,मनुज नश्वर सभी,
तो भाग्य से डरकर,मेरा
घनश्याम बैठा क्यों रहे,
सीता-विरह में राम कुंठित
विरह-विष क्यों कर सहे,
तो शिव मेरा संग्रामरत,
है नष्ट करता काम को,
और कभी दृष्टव्य,तकता
पार्वती अभिराम को,
तो ऋण मेरा,मैं शेष कोई
क्यों रखूँ, इस जगत में,
और रुद्र विष,अमृत सरीखे
नित चखूँ, इस जगत में,
इसलिए है वेद पंचम,
प्रेम का यह ग्रंथ मेरा,
और कबीरों सम सधुक्कड़
संजयी है, पंथ मेरा।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा
"प्रेम-ग्रंथ"
"आगत समय का स्वप्न क्या,
और भाग्य क्या,प्रारब्ध क्या,
एक द्यूत-क्रीड़ा प्रेम, संजय!
प्राप्य क्या और लब्ध क्या,
कर्म की, संजय! कलम यदि,
वाक्य क्या और शब्द क्या,
लिख,प्रखर दिनकर की कहानी,
प्रिय निशा निस्तब्ध क्या,
तो प्रेम करना,स्वप्न से भी,
कर्म है,संजय! मेरा,और
स्वप्न को साकार करना,
भाग्य पर सुविजय मेरा,
सैकड़ों रविकर का तुझमें
ओज है वीराँगना,
मद-मधुर माधुर्यों में डूबी
प्रसादों की व्यंजना,
तू मेरी अमिधा कलम,
हर पृष्ठ पर दृष्टव्य है,
तू मेरी अभिलक्षणा,
संजय का तू वक्तव्य है,
प्रेम करना इस जगत में,
क्या नहीं संग्राम है,
प्रेम मर्यादा पुरुष है
तो कभी घनश्याम है,
'प्रेम कर ले',पुस्तकों में,
धर्मग्रंथों में पढ़ा था,
पर प्रेम में मेरे,जगत का
आवरण किंचित मढ़ा था,
यह जगत सतयुग कभी,
त्रेता कभी, द्वापर कभी,
और भाग्य के हाथों के
कठपुतले,मनुज नश्वर सभी,
तो भाग्य से डरकर,मेरा
घनश्याम बैठा क्यों रहे,
सीता-विरह में राम कुंठित
विरह-विष क्यों कर सहे,
तो शिव मेरा संग्रामरत,
है नष्ट करता काम को,
और कभी दृष्टव्य,तकता
पार्वती अभिराम को,
तो ऋण मेरा,मैं शेष कोई
क्यों रखूँ, इस जगत में,
और रुद्र विष,अमृत सरीखे
नित चखूँ, इस जगत में,
इसलिए है वेद पंचम,
प्रेम का यह ग्रंथ मेरा,
और कबीरों सम सधुक्कड़
संजयी है, पंथ मेरा।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा
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