Friday 9 March 2012

१. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

१.
"प्रेम-ग्रंथ"

"मैं था अल्हड़ एक नवयुवक,
श्वाँसें मेरी तरंगित थीं,
अकथ भावना प्रेमगीत की,
मेरे लिये अपरिचित थी,

रहता था अपनी धुन में,
जागा-जागा,खोया-खोया,
दुर्गम प्रेम मार्ग भयातुर,
भागा-भागा,सोया-सोया,

अनगढ़ सी तुम,अल्हड़ थी तुम,
अकस्मात आगमित हुई,
जड़ जगत जला,जागा चेतन,
जब जादू तुम अवतरित हुई,

तुम कौन ? प्रश्न का उत्तर
था तब मेरे मन में जागा,
मैं नौका तुम पतवार,
सुनहरा स्वर्ण संयोग सुहागा,

कदली कला,चमकती ग्रीवा,
कंधों पर यौवन का भार,
मैं क्या रहा,हुई तुम सब कुछ,
तू ही था मेरा संसार,

तो मैं किशोर जिज्ञासु हो गया,
वयःसंधि की क्रीड़ा का,
पर अनुमान मुझे कब था,
अल्पवय प्रेम की पीड़ा का।

धवल नयन,उत्कृष्ट नासिका,
अधर मद भरे मधुकलश,
प्रियतम का सौंदर्य कदाचित,
करता जाता था परवश,

मृदुल लता सी देहयष्टि,
तम को झंकृत करता निःश्वास,
कम्पित पलाश के अधर जगाते थे,
अंतस मधुरिम विश्वास,

घटा घनघोर,काले केश
उड़ते थे,पवन के जोर से,
मलयानिल से सिक्त नागिन
नृत्य करती भोर से,

प्रेम की साक्षात देवी,
काम का धनु कटि प्रदेश,
वक्षस्थल सागर समुन्नत,
नैन कहते थे संदेश,

रति मूल प्रकृति तुम लज्जा थी,
मानों पुष्पों से बनी हुई,
निष्पाप नयन की प्रत्यंचा,
कामुक कमान सी तनी हुई,

अपरिमित आकर्षण अंजान!
लिये जाता था तेरी ऒर,
हवा में अश्व उड़े था ज्यों,
खिंचा जाता था मैं बिन डोर।

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

1 comment:

  1. तो मैं किशोर जिज्ञासु हो गया,
    वयःसंधि की क्रीड़ा का,
    पर अनुमान मुझे कब था,
    अल्पवय प्रेम की पीड़ा का।
    beautiful lines with emotions and feelings .

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