Saturday 10 March 2012

१२. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


१२.
"प्रेम-ग्रंथ"


"वे तेरे चंचल नयन,हृद्-
ताल पर पंकज सरस थे,
रक्त लाली अधर रस की,
तृप्त करते मधुकलश थे,


हंस कूज,भौंरे की गुंजन,
कोयल कू-कू तेरी बोली,
कभी शुभ्र तुम नीमपुष्प तो 
कभी रसभरी मधुर निंबोली,


गले की सुंदरता उत्कृष्ट,
झूलता प्रियहिय तक गलहार,
लूटता प्रलयतुल्य कटिलोच,
नृत्यरत नव नितम्ब रतनार,


कोकिलकंठा थी,हंस देह से,
सिंह कटि से थी कामधेनु तुम,
नयन मृगी के,चाल हस्तिनी,
वनबाला थी कामरेणु तुम,


सुशोभित देह,स्वर्ण श्रृंगार,
जिनका विस्तार भार पर भार,
सुमन तुम सकुचाई सुकुमार,
श्वाँसों में सिमट रहा संसार,


मुखड़ा पय का अभिसार व्योम
तक,धैर्य अपूर्व झलकता था,
सुरसरि शशि सौंदर्य उष्ण से 
प्रातः ओस छलकता था,


चंदन सुगन्ध वह देहराशि,
सिन्दूर अधर आलता लाल,
टीका-कुमकुम-बिंदिया-काजल,
उन्मुक्त केश थे क्रुद्ध व्याल,


पयमुख विराट अनुहार उर्ध्व,
दक्षिण ढलते घनश्याम केश,
पूरब-पश्चिम द्विज चंद्र कर्ण,
उत्तर दिनकर ने धरा भेष,


घूँघट के पट खुले,अभ्र पर 
आभासित अनगिनत दामिनी,
सुरपति मोहित,उर्वशी नृत्यरत,
उद्भासित उद्दाम कामिनी,


गुलाबी-लाल हथेली थी,
जिनका स्पर्श मात्र,प्रिय ध्येय,
कहाँ से लाउँ मैं उपमान,
ऐसी तुम सर्वोत्तम उपमेय,


तुम्हारा अव्याख्येय सौंदर्य,
रति का तुम अतिरंजित प्रतिमान,
तुम्हारा शील स्वर्ग उपहार,
नारी का तुम समग्र सम्मान,


तुम मित्र मेरी हो मित्र,साँध्य-
वेला की सी तुम  रक्तिम हो,
तुम मेरे काव्य की पंक्ति प्रथम,
तुम मेरी लेखनी अंतिम हो।


(लगातार)


संजय कुमार शर्मा

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