Saturday 10 March 2012

८. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


८.
"प्रेम-ग्रंथ"

"जलती होलिका समक्ष शपथ,
है स्मृत वह होलिका दहन,
इस पार कान्त,उस पार प्रिया,
नयनों से करना हृद्अर्पण,

स्वर्ण सुमन वह सरसों के,
झूमे हिय गेहूँ की बाली,
पावक पलाश के पुष्प,दहकते
प्रिय के होठों की लाली,

उन नयनों से कुछ तीर चले,
कुछ लगे मुझे,कुछ उड़े गगन,
ईश्वर से क्या प्रेरणा मिली,
जब मुझे मिला,रति आमंत्रण,

बिन कहे कहा:'तुम कल आना
मेरी गलियों में रंग लिए,
जग आलोचित मत करे तुम्हें,
आना साथी कुछ संग लिए।',

गाली-झगड़ों में मत रहना,
मत पीना मदिरा-भंग,सुनो!
मर्यादित होली में रहना,
वह शूद्रों का है ढंग सुनो!

रंग-प्रीत-फाग का यह अवसर,
उत्सव है ढोल-नगाड़ों का,
मांदर की थाप सुनो,सजना!
नहीं दिन यह युद्ध अखाड़ों का,

हाँ सुनो!जब मेरी सखियाँ होंगी
साथ,निकट तुम मत आना,
पल-भर तकना एकान्त,
रंग मलना,मुझको मत तरसाना,

तुम जब निकलोगे गलियों से,
मैं छत से रंग उड़ेलूँगी,
जब मेरे रंग में रंगा तुम्हें
देखूँ,तब होली खेलूँगी,

और हाँ!तुम अपना रंग मेरी
ड्योढ़ी पर रखकर चल देना,
और वहीं रखा कुछ रंग मेरा
अपने मुखड़े पर मल देना,

कुछ रंग चुरा लेना मुझसे,
कुछ अपने रंग मुझे देना,
जाने भविष्य में क्या होगा,
पल भर का संग मुझे देना,

चलो आज फिर होली आई,
जाने तुम प्रियतमा! कहाँ...?
यदि शेष प्रेम किंचित मुझसे,
रंगना मेरा प्रतिबिम्ब वहाँ..?

हा!प्रियतम सब याद मुझे है,
रंग,मेरे सर्वाँग,सुनो!
नियति नटी के हाथों में हा!
जीवन मेरा स्वांग सुनो।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

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