२०.
"प्रेम-ग्रंथ"
"वह तड़ाग का दृश्य,भला!
मैं कैसे भूलूँ हृदयाँकित,
रति-छाया से सुप्त काम जब
जगा, कोष पा मनवाँछित,
मीन तेरा वह जलप्रवेश,सम
सर्प तैरना और नहाना,
लट नागिन चिपकी मुखड़े पर,
देह पोंछना और हटाना,
खग सम तुम अज्ञानी क्या
जानो,देखे छिप कर कौन,
आड़ छिपे,वट-वृक्ष निहारूँ
तुझे,भामिनी! मौन,
आहट सुन कुछ तेरा चौंकना,
कौन छिपा है तनिक सोचना,
फिर असफल निश्चिन्त भाव
से दीप्त दामिनी देह पोंछना,
गगरी जल में डुबा उसे भर,
घुटने से सिर पर रखना,
कौन मूढ़ जो नहीं चाहता
स्वर्ग नयन सुख मधु चखना,
चली,धसकने लगी धरा,
हिलते पर्वत उन्मुक्त-मुक्त,
एक गगरी सिर पर,पीछे
द्वय,रुधिर-माँस से युक्त,
बल खाती नागिन सा चलना,
वह हिरनी सी चाल,
कृष्ण केश वह क्षीर-पीठ पर,
ज्यों घाटी पर व्याल,
गगरी में जल भर कर लाना,
गोरी तेरा पनघट से,
मधुर सोहती तान तुम्हीं से
है गोपी! वंशीवट से,
कसी कंचुकी भीग हुई कुछ
और निकट,भीगे तन से,
वाष्प निकलने लगा,धधकते
कामुक रति नवयौवन से,
गगरी से छलका जल तेरे
मुखड़े का चुम्बन करता,
और मोती सा ढलक,चंद्र
के यौवन में यौवन भरता,
अहा! अधर पर टिकी बूँद
ज्यों थी गुलाब पर ओस,
अरे! होठ से ढलको मत,
हे! प्रियतम के संतोष,
ज्यों गुलाब के दल पर
जमती,शीत ओस की बूँद,
प्रेमलीन सच्चिदानंद,
इहलौकिक आँखेँ मूँद।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा
"प्रेम-ग्रंथ"
"वह तड़ाग का दृश्य,भला!
मैं कैसे भूलूँ हृदयाँकित,
रति-छाया से सुप्त काम जब
जगा, कोष पा मनवाँछित,
मीन तेरा वह जलप्रवेश,सम
सर्प तैरना और नहाना,
लट नागिन चिपकी मुखड़े पर,
देह पोंछना और हटाना,
खग सम तुम अज्ञानी क्या
जानो,देखे छिप कर कौन,
आड़ छिपे,वट-वृक्ष निहारूँ
तुझे,भामिनी! मौन,
आहट सुन कुछ तेरा चौंकना,
कौन छिपा है तनिक सोचना,
फिर असफल निश्चिन्त भाव
से दीप्त दामिनी देह पोंछना,
गगरी जल में डुबा उसे भर,
घुटने से सिर पर रखना,
कौन मूढ़ जो नहीं चाहता
स्वर्ग नयन सुख मधु चखना,
चली,धसकने लगी धरा,
हिलते पर्वत उन्मुक्त-मुक्त,
एक गगरी सिर पर,पीछे
द्वय,रुधिर-माँस से युक्त,
बल खाती नागिन सा चलना,
वह हिरनी सी चाल,
कृष्ण केश वह क्षीर-पीठ पर,
ज्यों घाटी पर व्याल,
गगरी में जल भर कर लाना,
गोरी तेरा पनघट से,
मधुर सोहती तान तुम्हीं से
है गोपी! वंशीवट से,
कसी कंचुकी भीग हुई कुछ
और निकट,भीगे तन से,
वाष्प निकलने लगा,धधकते
कामुक रति नवयौवन से,
गगरी से छलका जल तेरे
मुखड़े का चुम्बन करता,
और मोती सा ढलक,चंद्र
के यौवन में यौवन भरता,
अहा! अधर पर टिकी बूँद
ज्यों थी गुलाब पर ओस,
अरे! होठ से ढलको मत,
हे! प्रियतम के संतोष,
ज्यों गुलाब के दल पर
जमती,शीत ओस की बूँद,
प्रेमलीन सच्चिदानंद,
इहलौकिक आँखेँ मूँद।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा
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