Sunday 18 March 2012

१६. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण


१६.
"प्रेम-ग्रंथ"


"प्रियतमा शुक्र,बादलों मध्य,
अहा! वह शुभ्र श्वेत सौंदर्य,
देख हुई मेरी दृष्टि,अनिमेष,
अप्सरा अपरिमेय आश्चर्य,


उष्ण श्वाँस से माथे पर की 
लट,ज्वाला से दहक रही थी,
देहगंध,नैसर्गिक चंदन
के सुगंध से महक रही थी,


मधुकण,तेरे अधरों से थे
टपक रहे,चातक प्यासा,
स्वाति! तेरी अमृत बूँदों से
मिले तृप्ति,यह अभिलाषा,


वह कटि पर का परवलय,
प्रिये! आसन्न कोण आधार,
रतिबिंदु,सुमन प्रतिबिम्ब,
प्रियतमा! स्वर्गों का अभिसार,


चंद्र की शीतल किरण,मेघों 
से गिरती ओस तुम हो,
तुम क्षुधा,लिप्सा,पिपासा,
वासना,अनुतोष तुम हो,


क्यों मुझे अपलक निहारा?
प्राप्य लगते लब्ध मेरे,
पुनः सक्रिय हो चले सब
कोशिका निस्तब्ध मेरे,


हृदय जो था शाँत,प्रिय! 
तेरे पवन से डोलता,
कौन? मेरे श्याम मन 
पर सैकड़ों रंग घोलता,


कौन? लिखता प्रेम का 
एक ग्रंथ,मेरे श्यामपट पर,
कौन?संजय! है बजाता 
बाँसुरी जमुना के तट पर,


तेरा वह परलौकिक सौंदर्य,
तेरा स्वाभाविक स्वर्गिक दर्प,
डसने को,मेरे मनुज का शील,
तत्पर वह तीव्र काम का सर्प,


मेरा ब्रह्मचर्य काल था संकट में,
रति! नववसंत वह अठखेली,
मैं साधुवंश तज,मनुज बना,
सम्मुख इहलौकिक रंगरेली,


तुम वर्षा,मैं निष्प्राण भूमि,मैं 
मनु तम सम,तुम ज्वलित दीप,
मैं निर्धन से धनवान हुआ,
निकले मोती,जब फटा सीप,


प्रस्ताव तेरा स्वीकार करूँ
या अवसर तज दूँ जीवन का,
तिरस्कार नारी का कैसे 
करता नर! नवयौवन का।"


(लगातार)


संजय कुमार शर्मा 

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