Friday 9 March 2012

२. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

२.
"प्रेम-ग्रंथ"

"सोते-जगते,हँसते-गाते,सब
ओर लगी तुम व्याप्त मुझे,
और नहीं कुछ मुझे चाहिए,
प्रेम-दृष्टि पर्याप्त मुझे,

जीवन को झंकृत करती थी,
चेष्टा वह,मादक अठखेली,
मधुशाला की मदभरी तान,
तुम आतुर,अल्हड़,अलबेली,

पलक झपकते ही बदला
मानों प्रकृति ने वेश,
मुखचंद्र चांदनी पर चपला
से चमक उठे थे केश,

वह निहारना,तेरा मुझे,छिप
कर अपलक,आनंदित दृग,
मुझसे दृष्टि मिल जाते ही,
चेहरे पर खिलता,भटका मृग,

तुम प्रकटी सम्मुख प्रथम बार
ज्यों प्रकट हुई थी माया,
उल्लास नयन में,प्रेम हृदय
में प्रथम बार था छाया,

आकर्षण तेरा वह उन्मुक्त,
निमंत्रण देता मुझको मौन,
निशा-निस्तब्ध-चपल-कम्पित,
मधुर संगीत बजाता कौन?

तपन तपाती मुझ धरती को,
शीतल तुमने किया मुझे,
प्रेमसिक्त पग धरा धरा पर,
मोक्ष प्यार का दिया मुझे,

मैं विस्मित था,तुम चुपके-
चुपके,कदम बढ़ाती चली गई,
मुझ निरे निरक्षर से नर को
तुम प्रेम पढ़ाती चली गई,

प्रणय का संदेश था या
पायलों की वह छनक थी,
आमंत्रण था मूक चुप में,
हर लहर कंगन खनक थी,

मौन कह देता था सब कुछ,
कौंधती बिजली चमकती,
रस से भीगा था मेरा मन,
दृष्टि में जब तुम दमकती,

वह तेरा मुझको कहना,
तुम मेरी थी,वह बचपन था,
चंचल मन,उद्विग्न आचरण-
युक्त तेरा वह यौवन था,

चीर जामुनी चीर,चमक चिर-
शुक्ल चंद्र ज्यों उदित हुआ,
मस्त,मदिर,मादक मलयानिल,
मन मनसिज मेरा मुदित हुआ,

तुमको छूकर,शीतोष्ण लहर
जो मेरे तन तक आती थी,
मेरा मन नागिन नृत्य करे,
चंदन सुगन्ध वह लाती थी।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

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