६.
"प्रेम-ग्रंथ"
"वह कामोद्दीपक नवयौवन,
मैं कामातुर,पथराती सोच,
कसी डोरी से बँधा हृदय,
करें हतप्रभ नितम्ब के लोच,
मनमोहक,मादक पर्वत!
करते जाते थे नृत्य,
जिन्हें देख मैं विवश !
काम का बनता जाता भृत्य,
गौर-वर्ण,माँसल शरीर,
आमंत्रण तन-मन-धन का,
मैं आंदोलित हो गया,मिला
जब मुक्त निमंत्रण यौवन का,
कँपते तेरे उत्तुंग शिखर,
हुआ था जब कटाक्ष संघर्ष,
जल-जल लज्जा से हुई,
प्रतीक्षित हुए मेरे स्पर्श,
पृष्ठ अवतल,सुगठित देह,
मुखड़े पर लज्जा की लाली,
चित्त स्थिर तुम वर्ण मेरा
और प्राण,अप्सरा मतवाली,
कोटि सूर्य अगणित किरणों से
चन्द्रबदन वह दमक रहा था,
दीप्त-दामिनी दीन हुई,
मुखचन्द्र तुम्हारा चमक रहा था,
तुम्हारी सुन्दरता सम्पूर्ण,
मुझे करती थी आल्हादित,
भागा हर अंधकार डर कर,
तेरा मुखमंगल जब प्रस्फुटित,
प्रथम वृष्टि सी देहयष्टि,
व्यक्तित्व चाँदनी शीत लपेटे,
शुष्क इला मधुरस बूँदों से,
श्रंगारित सौंदर्य समेटे,
सावन की हरियाली थी,
तुम भादो की काली रातें,
कौन पुरुष उत्तेजित न हो,
सुनकर प्यार भरी बातें,
ऋतुराज शीत में श्वाँस तेरे,
शीतोष्ण तपन बरसाते थे,
शरद-पूर्णिमा,चंद्र-ज्योत्सना,
हृदय-कुसुम हरषाते थे,
तुम वसन्त में आम्रमौर थी,
पिकवाणी थी रस घोले,
आग्रह तेरा अतिरिक्त मधुर,
सुन जिसको मन डगमग डोले,
अचम्भित हुए मेरे दृग-पलक,
प्रकम्पित लुप्त तुम्हारी झलक,
आँचल छिन चढ़े,दिखे छिन ढलक,
छवि से अनवरत रस रहा छलक।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा
"प्रेम-ग्रंथ"
"वह कामोद्दीपक नवयौवन,
मैं कामातुर,पथराती सोच,
कसी डोरी से बँधा हृदय,
करें हतप्रभ नितम्ब के लोच,
मनमोहक,मादक पर्वत!
करते जाते थे नृत्य,
जिन्हें देख मैं विवश !
काम का बनता जाता भृत्य,
गौर-वर्ण,माँसल शरीर,
आमंत्रण तन-मन-धन का,
मैं आंदोलित हो गया,मिला
जब मुक्त निमंत्रण यौवन का,
कँपते तेरे उत्तुंग शिखर,
हुआ था जब कटाक्ष संघर्ष,
जल-जल लज्जा से हुई,
प्रतीक्षित हुए मेरे स्पर्श,
पृष्ठ अवतल,सुगठित देह,
मुखड़े पर लज्जा की लाली,
चित्त स्थिर तुम वर्ण मेरा
और प्राण,अप्सरा मतवाली,
कोटि सूर्य अगणित किरणों से
चन्द्रबदन वह दमक रहा था,
दीप्त-दामिनी दीन हुई,
मुखचन्द्र तुम्हारा चमक रहा था,
तुम्हारी सुन्दरता सम्पूर्ण,
मुझे करती थी आल्हादित,
भागा हर अंधकार डर कर,
तेरा मुखमंगल जब प्रस्फुटित,
प्रथम वृष्टि सी देहयष्टि,
व्यक्तित्व चाँदनी शीत लपेटे,
शुष्क इला मधुरस बूँदों से,
श्रंगारित सौंदर्य समेटे,
सावन की हरियाली थी,
तुम भादो की काली रातें,
कौन पुरुष उत्तेजित न हो,
सुनकर प्यार भरी बातें,
ऋतुराज शीत में श्वाँस तेरे,
शीतोष्ण तपन बरसाते थे,
शरद-पूर्णिमा,चंद्र-ज्योत्सना,
हृदय-कुसुम हरषाते थे,
तुम वसन्त में आम्रमौर थी,
पिकवाणी थी रस घोले,
आग्रह तेरा अतिरिक्त मधुर,
सुन जिसको मन डगमग डोले,
अचम्भित हुए मेरे दृग-पलक,
प्रकम्पित लुप्त तुम्हारी झलक,
आँचल छिन चढ़े,दिखे छिन ढलक,
छवि से अनवरत रस रहा छलक।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा
No comments:
Post a Comment