४.
"प्रेम-ग्रंथ"
"चेहरे पर था रंग गुलाबी,
वह अक्षत यौवन थी,
पर पीड़ा पर मैं तड़पा था
ज्यों वह मेरा तन थी,
कब बढ़े नीर अनुपात ?भले ही
जलधर,जलधर पर बरसे,
प्रतिपल प्रेरित प्रणय प्रियतमा!
प्यासा पानी पाकर तरसे,
नयन,नयन से मिले नहीं कि
प्रथम दृष्टि में प्यार हो गया,
अब तक जिसे सहेज रखा था,
हृदय न जाने कहाँ खो गया,
दत्तचित्त दुर्भेद्य दुर्ग को
दीर्घबाहु तुमने भेदा,
मैं लौहपुरुष,मुझको लिप्सा
से लिप्त तीर ने छेदा,
एक हवा का निर्दय झोंका,
अस्त्र लिए मुझ पर दौड़ा,
मन तुरंग पर शस्त्र सुसज्जित,
मुझ पर चला रहा कोड़ा,
हृस्व हृदय,हय सदृश हो गया,
करने लगा हवा से बातें,
हुई कनपटी लाल,जम गया
रक्त निकट जाते जाते,
उंची-नीची,लयबद्ध ताल,
सौंदर्य भार से चढ़ा हुआ,
मैं ढीठ नहीं था फिर भी क्यों?
आँखें गाड़े बस अड़ा हुआ,
उषा किरण की लाली थी तुम,
जो पूरब में व्याप्त भोर से,
या आभा जो शुक्र समेटे,
सांध्य उगे पश्चिमी छोर से,
तुम पूर्ण चंद्र,प्रज्जवलित सूर्य,
तुम अंतरिक्ष तारामंडल,
दृष्टि मिली मन खिले,प्रिये!
यह जीवन मेरा हुआ मंगल,
अंगड़ाई तुम अलसाई,
अनबूझ अंतरा अनजाना,
अनकही,अपरिमित आस जगाती
तुम अमूल्य ताना-बाना,
तेरी परिधि में सिमट गया,
मेरे जीवन का वृत्त,
तुम केन्द्र बिन्दु बन गई मेरी,
गतिमान हो गया चित्त,
पत्र लिख कर,पत्र पर,
तुमने दिया था एक दिन,
कह दिया था मूक नेत्रों से
समर्पण!कुछ कहे बिन।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा
"प्रेम-ग्रंथ"
"चेहरे पर था रंग गुलाबी,
वह अक्षत यौवन थी,
पर पीड़ा पर मैं तड़पा था
ज्यों वह मेरा तन थी,
कब बढ़े नीर अनुपात ?भले ही
जलधर,जलधर पर बरसे,
प्रतिपल प्रेरित प्रणय प्रियतमा!
प्यासा पानी पाकर तरसे,
नयन,नयन से मिले नहीं कि
प्रथम दृष्टि में प्यार हो गया,
अब तक जिसे सहेज रखा था,
हृदय न जाने कहाँ खो गया,
दत्तचित्त दुर्भेद्य दुर्ग को
दीर्घबाहु तुमने भेदा,
मैं लौहपुरुष,मुझको लिप्सा
से लिप्त तीर ने छेदा,
एक हवा का निर्दय झोंका,
अस्त्र लिए मुझ पर दौड़ा,
मन तुरंग पर शस्त्र सुसज्जित,
मुझ पर चला रहा कोड़ा,
हृस्व हृदय,हय सदृश हो गया,
करने लगा हवा से बातें,
हुई कनपटी लाल,जम गया
रक्त निकट जाते जाते,
उंची-नीची,लयबद्ध ताल,
सौंदर्य भार से चढ़ा हुआ,
मैं ढीठ नहीं था फिर भी क्यों?
आँखें गाड़े बस अड़ा हुआ,
उषा किरण की लाली थी तुम,
जो पूरब में व्याप्त भोर से,
या आभा जो शुक्र समेटे,
सांध्य उगे पश्चिमी छोर से,
तुम पूर्ण चंद्र,प्रज्जवलित सूर्य,
तुम अंतरिक्ष तारामंडल,
दृष्टि मिली मन खिले,प्रिये!
यह जीवन मेरा हुआ मंगल,
अंगड़ाई तुम अलसाई,
अनबूझ अंतरा अनजाना,
अनकही,अपरिमित आस जगाती
तुम अमूल्य ताना-बाना,
तेरी परिधि में सिमट गया,
मेरे जीवन का वृत्त,
तुम केन्द्र बिन्दु बन गई मेरी,
गतिमान हो गया चित्त,
पत्र लिख कर,पत्र पर,
तुमने दिया था एक दिन,
कह दिया था मूक नेत्रों से
समर्पण!कुछ कहे बिन।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा
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