१८.
"प्रेम-ग्रंथ"
"स्मरण चैत्र-प्रतिपदा मुझे,
व्रत रखती थी तुम,प्रिये!सदा,
मेरा प्रेमजल,शिवलिंग अर्पण
करती थी तुम,प्रियम्वदा!
पर भविष्य का लेखा-जोखा
सदा हमें अज्ञात रहे,
आज हृदय क्यों धड़क रहा है,
मात्र यही अभिज्ञात रहे,
अवतरित हुए,हम प्रेमग्रंथ
एक प्रीतकाव्य निष्पादित करने,
इस धरती पर जीव रूप धर,
प्रेमकाज संपादित करने,
पर अवलंबन उद्देश्य तेरा,
पर आलंबन मेरा जीवन,
तुम पराश्रयी,परजीवी सम,
आश्रयदाता,मेरा तन-मन,
मैं वृक्ष अडिग,आँधी विशाल!
तुम लता झुकी और छूट गई,
उन्मुक्त समीरण,जल-हिल्लोर,
द्रुमहठ,अभिलाषा टूट गई,
मेरा सर्वस्व समर्पित तेरे
मधुर हास को, ऐ! सबला,
मेरी दृष्टि में वही मूर्ख,
कहता है जो, नारी अबला,
पर मुझे पराश्रित लगता था
वह छली काम उद्दाम मेरा,
त्रेता-द्वापर के मकड़-जाल में
बली राम-घनश्याम मेरा,
आकर मुझमें,तुम रचो-बसो,
मकड़े सम मैं जाला बुनता,
अमृत-मंथन के सुधा-गरल
तज मैं स्वर्गिक हाला चुनता,
कुछ मैं कहता,कुछ तुम कहती,
कुछ तुम सुनती,कुछ मैं सुनता,
कुछ मैं गाता,कुछ तुम गाती,
कुछ तुम गुनती,कुछ मैं गुनता,
जुड़ गए हमारे संवेदन,
जब तुम रोती,तब मैं रोता,
विरह अकल्पित,हम दोनों
के लिए धैर्य,धड़कन खोता,
अवशेष मात्र अब स्मृतियाँ,
वह मधुर वाद-संवाद,प्रिये!
तेरे प्रतिवादों का प्रत्युत्तर,
प्रेमग्रंथ अनुवाद,प्रिये!
अब लेकर संजय-प्रेम-रूधिर,
संदीप! अनवरत जलता जा,
तू पढ़ता संजय-प्रेमग्रंथ,
ऐ!हृदय,अनवरत चलता जा।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा
"प्रेम-ग्रंथ"
"स्मरण चैत्र-प्रतिपदा मुझे,
व्रत रखती थी तुम,प्रिये!सदा,
मेरा प्रेमजल,शिवलिंग अर्पण
करती थी तुम,प्रियम्वदा!
पर भविष्य का लेखा-जोखा
सदा हमें अज्ञात रहे,
आज हृदय क्यों धड़क रहा है,
मात्र यही अभिज्ञात रहे,
अवतरित हुए,हम प्रेमग्रंथ
एक प्रीतकाव्य निष्पादित करने,
इस धरती पर जीव रूप धर,
प्रेमकाज संपादित करने,
पर अवलंबन उद्देश्य तेरा,
पर आलंबन मेरा जीवन,
तुम पराश्रयी,परजीवी सम,
आश्रयदाता,मेरा तन-मन,
मैं वृक्ष अडिग,आँधी विशाल!
तुम लता झुकी और छूट गई,
उन्मुक्त समीरण,जल-हिल्लोर,
द्रुमहठ,अभिलाषा टूट गई,
मेरा सर्वस्व समर्पित तेरे
मधुर हास को, ऐ! सबला,
मेरी दृष्टि में वही मूर्ख,
कहता है जो, नारी अबला,
पर मुझे पराश्रित लगता था
वह छली काम उद्दाम मेरा,
त्रेता-द्वापर के मकड़-जाल में
बली राम-घनश्याम मेरा,
आकर मुझमें,तुम रचो-बसो,
मकड़े सम मैं जाला बुनता,
अमृत-मंथन के सुधा-गरल
तज मैं स्वर्गिक हाला चुनता,
कुछ मैं कहता,कुछ तुम कहती,
कुछ तुम सुनती,कुछ मैं सुनता,
कुछ मैं गाता,कुछ तुम गाती,
कुछ तुम गुनती,कुछ मैं गुनता,
जुड़ गए हमारे संवेदन,
जब तुम रोती,तब मैं रोता,
विरह अकल्पित,हम दोनों
के लिए धैर्य,धड़कन खोता,
अवशेष मात्र अब स्मृतियाँ,
वह मधुर वाद-संवाद,प्रिये!
तेरे प्रतिवादों का प्रत्युत्तर,
प्रेमग्रंथ अनुवाद,प्रिये!
अब लेकर संजय-प्रेम-रूधिर,
संदीप! अनवरत जलता जा,
तू पढ़ता संजय-प्रेमग्रंथ,
ऐ!हृदय,अनवरत चलता जा।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा
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