Friday 16 March 2012

१४. "प्रेम-ग्रंथ" आकर्षण-आमंत्रण

१४.
"प्रेम-ग्रंथ"

"ध्वनि थाप प्रिये! तेरा चलना,
था ढोल-मृदंग,खनक करधन,
हिले-बजे जब तू डोले था,
कटि का सम्मोहक नर्तन,

मुझे स्वर्ग ले जाती थी,
वह देहयष्टि,प्रिय मनभावन,
धीर तेरा दैदीप्य धरा सम,
शील तेरा गंगा पावन,

जंघाओं का विस्तार अपरिमित,
अनायास मन क्षुधा जगाए,
सिरकेश निलम्बित,घर्षणरत
सँवरी चोटी पर कुसुम सजाए,

तेरी रेशमी केशराशि,उस
पर सुंदर गजरा महके,
उनकी घनता घनमेघ तुच्छ,
मधुमुख तेरा शशि सम दहके,

कटि व्यास क्षीण,उस पर करधन,
था कवच रोकता नयन-बाण ज्यों,
भौंहें कमान,रति तेरी दृष्टि से
बेधित मेरा शिरस्त्राण ज्यों,

मादक,मनमोहक स्वर्ग नृत्य!
परिलक्षित तेरे पृष्ठ,
अहा! स्वर्ग का नृत्य दिखा
करता,भामा! उत्कृष्ट,

दृष्टि पड़ी जब पृष्ठ पर तेरे,
हुआ प्रफुल्लित धृष्ट,
ज्यों कोई वरदान मिल गया
मनु को मेरे अभीष्ट,

पिंडलियाँ सुडौल,एड़ियाँ स्वच्छ,
गुलाबी रंग छलकता,
पाँव सुकोमल रक्त कमल थे,
शुद्ध-श्वेत सौंदर्य झलकता,

पग तेरे घुँघरू बजते थे,
लाल महावर उन्हें सजाएँ,
सजनी का सौंदर्य अनसुना,
सुनें,जान,शत रति लजाएँ,

जब तू चलती गुरूभार संभाले,
नर्तन करें नूपूर पाँव में,
नियति-नटी नित नृत्य करे,
नवनैन नचाए नीम छाँव में,

चरण-कमल कोमल पर पायल,
रंग गुलाबी सधा हुआ था,
मुझ प्रेमी का हृदय कंठ से
निकल वहीं पर बँधा हुआ था,

सोलहों श्रृंगार देखा
मेघ ने,चपला चमक में,
हृदय मेरा दीप्त,कामातुर
हुआ उस रति दमक में।"

(लगातार)

संजय कुमार शर्मा

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