२७.
" प्रेम-ग्रंथ"
" यह मेरा कौमार्य और
मेरा शील,मेरे अक्षय धन हैं,
ऐ काम! तेरी कैसी माया,
विचलित, चंचल यह रति मन है,
यह तुमसे है अनुरोध प्रियतम!
मुझसे छल तुम मत करना,
यदि अक्षत यौवन मेरा क्षत हो,
तो मांग मेरी तुम ही भरना,
कैसा यह प्रकृति का परिहास,
तेरा वह कामदेव अनुहार,
मनु! तेरा प्राणिश्रेष्ठ सौंदर्य,
हिला दे रति-पर्वत के द्वार,
कौन? छेड़ता मेरे हृदय के तार,
विकरित कैसा सुमधुर संगीत,
वह तेरी माया! तन सौष्ठव,
जग जाएँ, सुप्त हृदय के प्रीत,
आओ, द्रुम सम वक्षाश्रय दो,
मैं मृदुल लता,प्रार्थना मेरी,
कांतकामिनी कोमल रतिहत्,
आक्रांत, कांत! कामना मेरी,
हे पुरुष! मेरी नारी का संबल,
तेरा प्रेम,अभिमान मेरा,
जग कहे मुझे जब तेरी भामिनी,
बढ़ता है सम्मान मेरा,
भलीभाँति अभिज्ञात मुझे,
मेरी निष्ठा, तेरा बल है,
और मेरा सर्वांग समर्पण,
युवा पुरुष! तेरा जल है,
प्रियतम! मैं लिखती हूँ जग में,
तेरे पौरुष की परिभाषा,
सब कुछ न्यौछावर करती हूँ,
प्रतिदान! न्याय की प्रत्याशा,
तेरे प्रिय सिन्दूर दान से
गर्वोन्मत मेरा माथा,
मैं विष्णुप्रिया, तुम नारायण,
और प्रेमग्रंथ,संजय! गाथा,
तुम मेरी भोर,तुम मेरा दिवस,
तुम सांध्य अर्चना,दीप मेरे,
तुम प्रेमसिक्त समभोग निशा,
तुम तमसकाल संदीप मेरे,
तेरी सेवा संसार मेरा,
तुम स्वामी,मैं तुम्हरी दासी,
तुम प्रेम करो या तजो मुझे,
प्रिय! मैं संतोषी,विश्वासी,
तुम कवच मेरे,मैं तेरा जीव,
यदि मैं मोती तुम मेरे सीप,
तुम राजभवन,मैं तेरी नींव,
मैं लहर बड़ी,तुम मेरे द्वीप।।"
( लगातार)
संजय कुमार शर्मा
" प्रेम-ग्रंथ"
" यह मेरा कौमार्य और
मेरा शील,मेरे अक्षय धन हैं,
ऐ काम! तेरी कैसी माया,
विचलित, चंचल यह रति मन है,
यह तुमसे है अनुरोध प्रियतम!
मुझसे छल तुम मत करना,
यदि अक्षत यौवन मेरा क्षत हो,
तो मांग मेरी तुम ही भरना,
कैसा यह प्रकृति का परिहास,
तेरा वह कामदेव अनुहार,
मनु! तेरा प्राणिश्रेष्ठ सौंदर्य,
हिला दे रति-पर्वत के द्वार,
कौन? छेड़ता मेरे हृदय के तार,
विकरित कैसा सुमधुर संगीत,
वह तेरी माया! तन सौष्ठव,
जग जाएँ, सुप्त हृदय के प्रीत,
आओ, द्रुम सम वक्षाश्रय दो,
मैं मृदुल लता,प्रार्थना मेरी,
कांतकामिनी कोमल रतिहत्,
आक्रांत, कांत! कामना मेरी,
हे पुरुष! मेरी नारी का संबल,
तेरा प्रेम,अभिमान मेरा,
जग कहे मुझे जब तेरी भामिनी,
बढ़ता है सम्मान मेरा,
भलीभाँति अभिज्ञात मुझे,
मेरी निष्ठा, तेरा बल है,
और मेरा सर्वांग समर्पण,
युवा पुरुष! तेरा जल है,
प्रियतम! मैं लिखती हूँ जग में,
तेरे पौरुष की परिभाषा,
सब कुछ न्यौछावर करती हूँ,
प्रतिदान! न्याय की प्रत्याशा,
तेरे प्रिय सिन्दूर दान से
गर्वोन्मत मेरा माथा,
मैं विष्णुप्रिया, तुम नारायण,
और प्रेमग्रंथ,संजय! गाथा,
तुम मेरी भोर,तुम मेरा दिवस,
तुम सांध्य अर्चना,दीप मेरे,
तुम प्रेमसिक्त समभोग निशा,
तुम तमसकाल संदीप मेरे,
तेरी सेवा संसार मेरा,
तुम स्वामी,मैं तुम्हरी दासी,
तुम प्रेम करो या तजो मुझे,
प्रिय! मैं संतोषी,विश्वासी,
तुम कवच मेरे,मैं तेरा जीव,
यदि मैं मोती तुम मेरे सीप,
तुम राजभवन,मैं तेरी नींव,
मैं लहर बड़ी,तुम मेरे द्वीप।।"
( लगातार)
संजय कुमार शर्मा
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