२९.
" प्रेम-ग्रंथ"
" कौन? मेरे कानों में आ कर
चुपके से कुछ बोल रहा है,
कौन? मेरे बंजर तन-मन में
रस सतरंगे घोल रहा है,
छेड़ रहा है कौन? मीत,
मेरे अंतस के तार, प्रिए!
अस्फुट ध्वनि से लगे जागने
मेरे हृदय रसधार, प्रिए!
कौन? भाग्य निर्माता मेरा
लेखा- जोखा लिखने तय है,
कौन? थामने हाथ मेरा है
नियत, मुझे संशय अतिशय है,
प्रथम दृष्टि में देख जिसे
मन कहता है,'यह अपना है',
देश- काल-परिस्थितियों का
दास मनुज, सब सपना है,
लगता है मन से जो अपना,
वह ही तुम से छल करता है,
जो अनल काम को शान्त नहीं
करता, वह चंचल करता है,
खुलने लगीं स्वेद-ग्रंथियाँ,
मेरे तन तापोत्तेजन से,
लगा दौड़ने हृदय अश्व सम,
तेरे रति उत्तेजन से,
हुआ विषहीन पुरूष विषधर मेरा,
धड़कन बदली,तन लाल हुआ,
डसने को रति-देह,काम ने
बदला चोला, व्याल हुआ,
आओ! आज अभी मिल लें,प्रिय!
कल क्या हो? यह जाने कौन,
प्रेम- ग्रंथ में सब कुछ लिखता
संजय, कैसे रहता मौन,
उद्दाम लहर,सागर विशाल,
जगती प्रकृति का अंश सही,
नर- नारी का मिलन प्राकृतिक,
ब्रह्मचर्य का ध्वंस नहीं,
तो आओ तज दो पुष्प, प्रियतमा!
प्रियतम का श्रृंगार करो,
विधि निमित्त हम आए धरा
पर, प्रेम मेरा स्वीकार करो,
हे शक्ति! समर्पित शिव को होकर,
पृथ्वी को निर्माण भीख दो,
नारी से नर की है परिभाषा,
जगती को यह ब्रह्म-सीख दो,
पढ़ लो! संजय का प्रेमग्रंथ,
ले लो जीवन रसरंग,प्रीत अब,
कब तक करता रहूँ प्रतीक्षा,
लगो हृदय से मेरे मीत अब।।"
( लगातार)
संजय कुमार शर्मा
" प्रेम-ग्रंथ"
" कौन? मेरे कानों में आ कर
चुपके से कुछ बोल रहा है,
कौन? मेरे बंजर तन-मन में
रस सतरंगे घोल रहा है,
छेड़ रहा है कौन? मीत,
मेरे अंतस के तार, प्रिए!
अस्फुट ध्वनि से लगे जागने
मेरे हृदय रसधार, प्रिए!
कौन? भाग्य निर्माता मेरा
लेखा- जोखा लिखने तय है,
कौन? थामने हाथ मेरा है
नियत, मुझे संशय अतिशय है,
प्रथम दृष्टि में देख जिसे
मन कहता है,'यह अपना है',
देश- काल-परिस्थितियों का
दास मनुज, सब सपना है,
लगता है मन से जो अपना,
वह ही तुम से छल करता है,
जो अनल काम को शान्त नहीं
करता, वह चंचल करता है,
खुलने लगीं स्वेद-ग्रंथियाँ,
मेरे तन तापोत्तेजन से,
लगा दौड़ने हृदय अश्व सम,
तेरे रति उत्तेजन से,
हुआ विषहीन पुरूष विषधर मेरा,
धड़कन बदली,तन लाल हुआ,
डसने को रति-देह,काम ने
बदला चोला, व्याल हुआ,
आओ! आज अभी मिल लें,प्रिय!
कल क्या हो? यह जाने कौन,
प्रेम- ग्रंथ में सब कुछ लिखता
संजय, कैसे रहता मौन,
उद्दाम लहर,सागर विशाल,
जगती प्रकृति का अंश सही,
नर- नारी का मिलन प्राकृतिक,
ब्रह्मचर्य का ध्वंस नहीं,
तो आओ तज दो पुष्प, प्रियतमा!
प्रियतम का श्रृंगार करो,
विधि निमित्त हम आए धरा
पर, प्रेम मेरा स्वीकार करो,
हे शक्ति! समर्पित शिव को होकर,
पृथ्वी को निर्माण भीख दो,
नारी से नर की है परिभाषा,
जगती को यह ब्रह्म-सीख दो,
पढ़ लो! संजय का प्रेमग्रंथ,
ले लो जीवन रसरंग,प्रीत अब,
कब तक करता रहूँ प्रतीक्षा,
लगो हृदय से मेरे मीत अब।।"
( लगातार)
संजय कुमार शर्मा
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